________________
___ लगभग आठवीं शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक के अपभ्रंश साहित्य के कृष्ण-काव्य की इस झाँकी से प्रतीत होगा कि उस साहित्य में कृष्ण-चरित के निरूपण की (और विशेष रूप से बालचरित्र के निरूपण की) एक बलिष्ठ परम्परा स्थापित हुई थी । इसमें भावालेखन एवं वर्णनशैली की दष्टि से उल्लेखनीय गुणवत्ता का दर्शन हम पाते है।।
कृष्ण-काव्य की सदीर्घ और विविधभाषी परम्परा के कवियों में स्वम्भ और पुष्पदन्त निःसन्देह उच्च स्थान के अधिकारी हैं। और इस विषय में बाद में सूरदास आदि जो सिद्धि-शिखर पर पहुँचे हैं उसके लिए समचित पूर्वभूमिका तैयार करने का बहुत कुछ श्रेय अपभ्रंश कवियों को देना होगा । भारतीय साहित्य में कृष्ण-काव्य की इस दीप्तिमान परम्परा में एक ओर संस्कृत-प्राकृत का कृष्ण-काव्य है तो दूसरी ओर आधुनिक भाषाओं का कृष्ण-काव्य । इन दोनों के बीच अपभ्रंश का कृष्ण-काव्य एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और निजी वैशिष्ट्य एवं व्यक्तित्व से युक्त कड़ी के रूप में विद्यमान है। निष्कर्ष
वैदिक साहित्य से अपभ्रंश साहित्य तक कृष्ण के स्वरूप का जो वर्णन भिन्न-भिन्न महर्षियों एवं कवियों ने किया है, उसका संक्षिप्त परिचय हमने ऊपर दिया है । इस परिचय से हिन्दी जैन साहित्य में कष्ण के स्वरूप विकास की पृष्ठभूमि स्पष्ट हो जाती है और हम देखते हैं कि भारतीय संस्कृति की जैन, बौद्ध और वैदिक - इन तीनों धाराओं ने कर्मयोगी श्रीकृष्ण के जीवन को विस्तार और संक्षेप - दोनों में युगानुकूल भाषा में चित्रित किया है । जहाँ वैदिक धर्म के अनुसार विष्णु का पूर्ण अवतार मानकर श्रद्धा और भक्ति से कृष्ण की स्तवना की है, वहाँ जैन परम्परा ने भावि तीर्थंकर और श्लाघनीय पुरुष मानकर उनका गुणानुवाद किया है तथा बौद्ध परम्परा ने भी उन्हें बुद्ध का अवतार मानकर उनकी उपासना की है।
__ जैन साहित्य के अनुसार कृष्ण देवकी के पुत्र थे जिन्हों ने द्वारका में जाकर एक नए राज्य की स्थापना की । वे असाधाराण पराक्रमी व अद्वितीय वीर पुरुष थे । उन्होंने अपने बाहुबल से द्वारका में अपने कुल का राज्य स्थापित किया था तथा अपने समय के राजाओं में एवं समाज में श्रेष्ठता अर्जित की । उनके असाधारण पराक्रम ने उन्हें जनमानस में पूजनीय बना दिया ।
कृष्ण के असाधारण पराक्रम व वीरत्व की पूजा को शनैः शनैः प्रतिष्ठा प्राप्त होती गई तथा उनकी अपने जीवनकाल में ही लोग, पूजा करने लगे
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वस्प-विकास • 37