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तिहने पास मैं भी कछु अल्प सौ प्रकाश भयो,
फेरि मैं वस्यो जिहांनाबाद मध्य आयकै ॥७॥
॥ दोहा॥ “सहर जिहांनाबाद में जैसिंघ पुरो सुथांन । __ मैं वसिहूं सुखः सदा जिनेशऊँ चित्त आनि ॥८॥
॥छप्पय॥ 'महमदसाह पातिसाह राजकरै सुचिकछौ,
नीतवंत बलवंत न्याय विन लेन अरथौ । ताके अमल सुमांहि ग्रन्थ आरंभरु कीन्हौं,
पर को भय दुख सोक कभूह हम कौयन लीन्हौ । इह विचार राजा तनौ इतनो ही उपगार है,
कौऊ दंडन सकै जिनमत को विस्तार है ॥९॥
॥दोहा॥ “सहर मध्य इक वणिक वर, साह सुखानंद जांनि ।
ताके गेह विषै रहै, गोकुल चंद सुजांनि ।।१०।। तिन ढिग मैं जाऊं सदा, पुढे शास्त्र सुभाय ।
तिनकौ वर उपदेश लै, मैं भाषा बनवाय ।।११।। ग्रन्थ तनी भाषा रची, जिन सेवक अनुसार । जसकौ कारिज ना करयो, करयो भविंक उपगार ।।१२।।
॥चौपाई॥ . एसी जांनि भविक सुखदाय, पढ़िजें सुनि0 मनवचकाय ।
__काला जाति खुस्याल सुनाम, भाषा रची परम सुख धाम ॥१३।। संवत सतरासै अरु असी, सुदी वैशाख तीज वर लसी ।
सुकरवार अति ही वर जोग, सार नख्यतर को संजोग ॥१४॥ पहर डोढ़ दिन बाकी रह्यौ, भाषा पूरण करि सुख लह्यौ ।
कसर देखि पंड़ित जन कौय, सुनकर लीज्यौ अक्षर सोय ॥१५|| मैं तो ग्रन्थ पढ़े कछु नाहि, सार विचार नहीं मुझ मांहि ।
यातै दोष न दीजो कोय, अलप घणौ गुण लीज्यौ जोय ॥१६॥
92 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास