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उसी भाषा को स्वतंत्र भारत में राष्ट्रभाषा होने का सौभाग्य मिला है । हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान डो. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने जैन साहित्य के सम्बन्ध में निम्न उद्गार प्रकट किये हैं -
इधर जैन अपभ्रंश-चरित काव्यों की जो विपुल सामग्री उपलब्ध हुई है वह सिर्फ धार्मिक सम्प्रदाय की मुहर लगाने मात्र से अलग कर दी जाने योग्य नहीं है । स्वयंभु, चतुर्मुख, पुष्पदंत और धनपाल जैसे कवि केवल जैन होने के कारण ही काव्यक्षेत्र से बाहर नहीं चले जाते । धार्मिक साहित्य होने मात्र से कोई रचना साहित्यिक कोटी से अलया नहीं की जा सकती । यदि ऐसा समझा जाने लगे तो तुलसीदास का रामचरितमानस भी साहित्य में विवेच्य हो जावेगा और जायसी का पद्मावत भी साहित्य की सीमा के भीतर नहीं घुस सकेगा । वस्तुतः लौकिक निजधरी कहानियों को आश्रय करके धर्मोपदेश देना इस देश की चिराचरित प्रथा है । कभी-कभी ये कहानियाँ पौराणिक और ऐतिहासिक चरित्रों के साथ घुला दी जाती हैं । यह तो न जैनों की निजी विशेषता है न सूफियों की । . हिन्दी-अपभ्रंश :
वि., १२ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से राजस्थानी हिन्दी का उत्तरोत्तर विकास की ओर गतिशील रहने के प्रमाण मिलते हैं, और अपभ्रंश श्री हेमचन्द्र युग में आकर गौण अर्थात् अप्रधान बनने लग जाती है अर्थात् राजस्थानी-हिन्दी रचनाएँ बनने लगी । अपभ्रंश-हिन्दी रचनाओं का काल हमने वि. १६ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध पर्यन्त ही समीचीनतः माना है। ___इस समय तक की प्राप्त श्वेताम्बर रचनाएँ जिन्हें हिन्दी कहा जाता है वे राजस्थानी की हैं और अपभ्रंश प्रभावित प्राप्त हिन्दी जैन दि. साहित्य में हिन्दी का निखरा हुआ रूप १६वीं शती के उत्तरार्द्ध की रचनाओं में देखने को मिलता है। अपभ्रंश रहित हिन्दी :
_ वि. १४वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में "हिन्दी, अपभ्रंश के प्रभाव से मुक्त बनने लगती है जो १६वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अपभ्रंश मुक्त होकर स्वतंत्र भाषा के रूप में परिणत हो जाती है । इस उपकाल में उल्लेखनीय हिन्दी जैन कवि धर्मसूरि, घेल्ह, विनयप्रभसूरि, अम्बदेव, दयासागरसूरि, और संवेगसुन्दर हैं । धर्मसूरि ने जम्बूस्वामीरास" घेल्ह ने वि.सं. १३७१ में चउबीसी गीत तथा गजसुकुमार रास विनयप्रभ ने वि.सं. १४१रमें गौतम रासा" अम्बदेव ने संघपति समरारास दयासागर ने वि.सं. १४८६में धर्मदत्त
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास • 77