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किया हुआ होता है । चरित काव्यों का उद्देश्य श्रेष्ठ पुरुषों के जीवन पाठकों के सामने रखना है जिससे वे भी अपने जीवन को सुधार सकें । जैन विद्वानों की चाहे हम इसे विशेषता कह सकें, चाहे काव्यरचना की शैली, उन्होंने जो भी रचना की है, उसका उद्देश्य अपना काव्य चमत्कार प्रकट करना न होकर पाठकों के कल्याण की ओर विशेष ध्यान रखना है । इस कारण कितनी ही रचनाएँ हिन्दी की उच्च रचनाएँ होने पर भी महाकाव्य की उस परिभाषा में नहीं आतीं जिस परिभाषा में विद्वानों ने महाकाव्य को तोलना चाहा है । लेकिन इसी से इन चरित - काव्यों का महत्त्व कम नहीं हो जाता । महा भूधर का पाश्र्वपुराण (१७८९) परिमल का श्रीपाल चरित्र' आदि कितने ही हिन्दी के सुन्दर चरित - काव्य हैं जिन्हें महाकाव्यों के समकक्ष में रखा जा सकता है । प्रबन्ध-काव्य की परिभाषा में अधिकांश चरित-काव्य उपयुक्त बैठते हैं । प्रद्युम्न चरित' (१४११), जिनदास का 'जम्बुस्वामी चरितं (१५४२) आदि प्रबन्ध-काव्य की श्रेष्ठ रचनाएँ हैं । इन काव्यों में अपने नायकों का बड़ा सुन्दर चित्रण किया गया है ।
रासा साहित्य
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रासा साहित्य जैन विद्वानों को काफी प्रिय रहा है । १३ वीं शताब्दी से लेकर १८वीं शताब्दी तक इन रासाओं की रचना होती रही । रासा का अर्थ हिन्दी जैन साहित्य में कथा के रूप में वर्णन करना है; किन्तु यह कथा काव्य-चमत्कार सहित कही हुई होती है । ये एक प्रकार के खण्ड-काव्य हैं, जिनमें अपने नायकों के जीवन के किसी भी अंश का उत्तम वर्णन किया गया है । यदि जैन रासाओं की एक सूची तैयार की जाये तो वह काफी विस्तृत होगी । १३वीं शताब्दी में धर्मसूरि ने 'जम्बूस्वामी रासां तथा विजयसेन सूरि ने रेवंतगिरि रासा को लिखकर हिन्दी भाषा के विकास में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी जोड़ दी । इसी प्रकार अम्बदेव द्वारा रचित 'संघपतिरासा' ( १४ वीं), विनयप्रभ का गौतम रासा (१५वीं शताब्दी) हिन्दी साहित्य की उत्तम संपत्ति है । १७वीं शताब्दी में जैन विद्वानों ने सबसे अधिक रासा लिखे । ब्रह्मरायमल ने श्रीपालरासा' (१६३०), 'नेमिश्वर रासा ( १६१५ ), प्रद्युम्नरासा (१६२९), कल्याणकीर्ति ने पाश्वर्नाथ रासो (१६९७), पांडे जिनदास ने जोगी रासों तथा श्रावकाचार रास (१६१५ ), ब्रह्मज्ञानसागर ने “हनुमतरासा" (१६३०), भुवनकीर्ति ने "जीवंधर रास" (१६०६), तथा "जम्बूस्वामी रास" (१६३०), रूपचन्द ने “नेमिनाथ रासो - आदि रचनाएँ लिखकर हिन्दी रासा साहित्य का भण्डार भर दिया । इसी प्रकार १८ वीं शताब्दी में भी काफी रासा साहित्य लिखा गया जो जैन ग्रन्थ-भण्डारों में उपलब्ध होते हैं ।
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हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप विकास • 81