________________
होती है, उसी में यह अपना साहित्य रचता हैं, अपना विचार, उपदेश, संदेश. भी उसी के माध्यम के द्वारा लोक समाज तक पहुँचाता है । इन तीन विशिष्ट परंपराओं से ही जैन साहित्य, प्राकृत और संस्कृत तथा अपभ्रंश में एक-सा समृद्ध, विविध और विपुल मिलता है ।
'
लोक-भाषा बननेवाली बोली अथवा भाषा को जैन साहित्य सदा वरदान अथवा अद्भुत देन के रूप में प्राप्त होता आया हैं । हिन्दी को अपभ्रंश की भारी देन है - इसमें तनिक भी मतभिन्नता नहीं । अपभ्रंश से जैसे अन्य आधुनिक लोक - भाषाएँ उद्भूत हुईं, उसी प्रकार हिन्दी भी उसी से बनी और निकली है । इसको राजस्थानी - गुजराती छोड़कर, अन्य भाषाओं की अपेक्षा अपभ्रंश से अधिक योग प्राप्त हुआ । इस कथन की ठीक-ठीक और सच्ची प्रतीति तो जैन- ज्ञान भण्डारों में अप्रकाशित पड़े हुए अपभ्रंश साहित्य के प्रकाश में आने पर धीरे-धीरे विदित होगी । फिर भी अभी तक जितना और जो कुछ अपभ्रंश साहित्य प्रकाश में आ चुका है, उस के आधार पर यह सर्वविदित हो चुका है कि हिन्दी के निर्माण में अपभ्रंश का महत्त्वपूर्ण योग है
I
स्वर्णकाल को प्राप्त हुई प्रत्येक भाषा ही अपने मध्य कालीन भाग अपने उदर में कोई अन्य ऐसी भाषा का गर्भधारण कर बढ़ती चलती है कि ज्योंही वह अपने प्राचीन रूप से उत्तर काल में वार्धक्यग्रस्त होकर निस्चेष्ट बनने लगती है, मध्यकाल से उसके उदर में पलती हुई वह भाषा जनसाधारण के मुख-मार्ग से निस्सरित होने लगती है और अपनी प्रमुखता स्थापित करती हुई अन्त में प्रमुख भाषा का रूप धारण कर लेती है ।
अपभ्रंश भाषा के स्वर्णयुग के मध्यभाग अर्थात् वि० की आठवीं शताब्दी के पिछले वर्षों में वि० सं० ७३४ के बाद महाकवि स्वयंभू ने “हरिवंश पुराण" और पद्म पुराण (रामायण) की रचना की थी । हिन्दी बीज प्रक्षेप करनेवालों में ये ही प्रथम अपभ्रंश - हिन्दी कवि माने जाते हैं । इनकी रचना में हिन्दी के बीज देखिये ।
सीता - ( अग्नि - परीक्षा के समय )
" इच्छउं यदि मम मुख न निहारै ।
यदि पुनि नयनानन्दहिं, न समर्पे उ रघुनन्दनहिं ।।""
जिसे आज हिन्दी के प्रमुख विद्वानों - महापंडित राहुल सांकृत्यायन तथा डो. हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि ने हिन्दी भाषा का प्रथम महाकाव्य मान लिया । इस प्रकार जैन विद्वानों द्वारा रखी हुई नींव इतनी मजबूत थी कि आज १- हिन्दी काव्यधारा - पृ० ६९ (स्वयंभू कृत रामायण - ४९१५) ।
है
76 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप - विकास