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सत्य करने के लिए धीरे-धीरे ऊखल घसीटते हुए उस ओर प्रस्थान किया, जिधर यमलार्जुन वृक्ष थे । भगवान श्रीकृष्ण दोनों वृक्षों के बीच में घुस गए । वे तो दूसरी ओर निकल गए, परन्तु ऊखल टेढ़ा होकर अटक गया । दामोदर भगवान श्रीकृष्ण की कमर में रस्सी कसी हुई थी । उन्होंने अपने पीछे लुढ़कते हुए ऊखल को ज्यों ही तनिक जोर से खींचा, त्यों ही पेड़ों की सारी जड़े उखड़ गयीं और वे दोनों बड़े जोर से तड़तड़ाते हुए पृथ्वी पर गिर पड़े । उन दोनों वृक्षो में से अग्नि के समान तेजस्वी दो सिद्ध पुरुष निकले । उन्होंने संपूर्ण लोकों के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण के पास आकर उनके चरणों में सिर रख कर प्रणाम किया तथा उनका आशीर्वाद प्राप्त कर अपने लोक को चले गए ।
(ग) कालिय नागदमन
आचार्य हेमचन्द्र रचित "त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित" के अनुसार यमुना में कालिय नाम का एक भयंकर नाग रहता था । इसका रहस्य न कृष्ण को पता था और न बलराम ही कुछ जानते थे । श्रीकृष्ण ने ज्यों ही स्नान करने के लिए यमुना में प्रवेश किया, कालिय नाग श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा । उसकी मणि के प्रखर प्रकाश से सारा पानी प्रकाशित हो गया । श्रीकृष्ण ने उसे कमल नाग की तरह पकड़ लिया, और उसकी नासिका नाथ कर उसके साथ क्रीड़ा करते रहे । कालिय नाग के उपद्रव को उन्होंने शान्त किया । २ और स्नान करके मथुरा की ओर चले गए ।
खुशालचन्द काला कृत “हरिवंश पुराण" के अनुसार कृष्ण का अन्त
१- श्रीमदभागवत: पृ. १८४-१९० ।
२- त्रिषष्टि. ८/५/२६२-२६५ /
३- कमल तणी अहि सेवा करै । जा ढिगी कोउ धीर न धरे । ऐसौ पंकज ब्याजे काहि ।। किष्न कुमार तै इम बतलाहि ।। १८२ कंस भूपकी आग्याराह || कमल तणूं अवकीजै केह । farad भाषणात ।। पुन्पथ की दुर्लभ को बात ।। १८३ सोक करो मति जनक लगार || मैं पंकज ल्याऊँ ततकार । इम कहि हरि गयो जहि थानि ।। सर्पथकी जीत्यौ सुनिदानी ॥। १८४ तव नागिन आई हरि पाय । मो पति उपरि षिमा कराय ॥ कमल मगाये नागिन पासि ।। लेय चल्यौ पंकज गुणरासि ।। १८५ कंस समीप कमल षिनवाय || देषि पदमसव अचिरज पाय ।। कंस चोरी हिवार ।। वैरी तौ बलवान अपार ।। १८६
- खुशालचन्द काला कृत "हरिवंशपुराण" - पृ. ७९ /
54 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप - विकास