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है । यह विराट काव्यग्रन्थ है । इसके रचयिता आचार्य हेमचन्द्र हैं जो कलिकालसर्वज्ञ के नाम से विश्रुत हैं । डॉ.० व्हीलर के अभिमतानुसार विक्रम सं० १२१६ से १२२९ के मध्य में इस ग्रन्थ की रचना हुई । इसके आठवें पर्व में भगवान नेमिनाथ, कृष्ण-बलभद्र और जरासंध का विस्तृत वर्णन मिलता है । श्री कल्याणविजयजी के शिष्य ने भी ५० दोहों में त्रिषष्टि शलाका पंचाशिका की रचना की थी और किसी अन्य अज्ञात लेखक ने भी तैंतीस गाथाओं में त्रिषष्टि शलाकापुरुष-विचार करके एक ग्रन्थ लिखा है । त्रिषष्टिशलाकापुरुष-चरित
हेमचन्द्र गुजरात के बड़े प्रभावशाली जैनाचार्य थे जिनका सम्बन्ध सिद्धराज जयसिंह तथा कुमारपाल जैसे गुजरात के प्रसिद्ध राजाओं से था । इनका व्याकरण-ग्रन्थ सिद्धहैमशब्दानुशासन -सिद्धराज जयसिंह को समर्पित किया गया था । कहते हैं इस व्याकरण ग्रन्थ की हाथी पर सवारी निकाली गई थी। स्वयं हेमचन्द्राचार्य भी उसी हाथी पर विराजमान कराए गए थे । इनका जन्म गुजरात के एक जैन परिवार में विक्रम संवत ११४५ में हुआ था तथा मृत्यु विक्रम संवत् १२२९ में हुई । हेमचन्द्राचार्य ने इस ग्रन्थ की रचना राजा कुमारपाल के अनुरोध पर की थी । इस चरित-ग्रन्थ में परम्परागत ६३ शलाकापुरुषो का चरित-वर्णन है । इस दृष्टि से यह महापुराण की परम्परा की रचना है । इसमें जैनों की अनेक कथाएँ, इतिहास, पौराणिक मान्यताएँ, सिद्धान्त, एवं तत्त्वज्ञान का वर्णन हुआ है । ग्रन्थ में १० पर्व हैं । प्रत्येक पर्व में अनेक सर्ग हैं । कृष्ण-चरित का वर्णन आठवें पर्व में हुआ है । इसी पर्व में नेमिनाथ, बलराम, जरासन्ध आदि का चरित-वर्णित है ।
__ इसकी भाषा सरल व प्रसादगुण-सम्पन्न है । गुजरात का तत्कालीन समाज कृति में अच्छी तरह प्रतिबिंबित हुआ है।
जैन श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यह ग्रन्थ अधिक प्रचलित रहा है । इस सम्प्रदाय के साहित्यकारों ने अपनी हिन्दी कृतियों के कथानकों के लिए आगमिक कृतियों के साथ ही इस ग्रन्थ का भी प्रमुख स्रोत ग्रन्थ के रूप में उपयोग किया है। (ग) अपभ्रंश जैन कृष्ण-साहित्य
अपभ्रंश साहित्य में कृष्ण-विषयक रचनाओं का स्वरूप, इयत्ता, प्रकार और महत्त्व कैसा था, यह समझने के लिए सबसे पहले उस साहित्य से संबंधित कुछ सर्वसाधारण प्रास्ताविक तथ्यों पर लक्ष्य देना आवश्यक होगा । १- जैन सा० का बृहद् इतिहास : भाग ६; डॉ० गुलाबचन्द चौधरी.
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास • 29