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सिद्धान्त-ग्रन्थों को आगम साहित्य तथा इतर सिद्धान्त ग्रन्थों को आगमेतर साहित्य के अन्तर्गत विभाजित किया है । वर्धमान महावीर ने अर्धमागधी में अपने उपदेश दिये, इसके अनेक उल्लेख मिलते हैं । आगम ग्रन्थों का विभाजन, अंग, उपांग, सूत्र आदि भेदों में मिलता है । अंग की संख्या १२ है । इनमें गद्य-पद्य, दोनों का व्यवहार किया गया है । दृष्टान्तों द्वारा जैन धर्म की व्यवहारोपयोगी बातों या तीर्थंकरों की जीवनी, ब्राह्मण तथा अन्य धर्मों के खण्डन, निर्वाण, मोक्ष आदि का विवेचन मिलता है । उक्त अंगों के १२ उपांग हैं । इनमें मृत्यु, पूर्वजन्म, पुनर्जन्म, आत्मा, नक्षत्र लोक, भूगोल, स्वर्ग नरक, आदि की दृष्टान्तों सहित विवेचना की गई है ।।
सिद्धान्त ग्रन्थों के अन्तर्गत छयस्त और मूल सूत्र हैं । प्रथम की संख्या छः है । इनमें जैन धर्म सम्बन्धी आचार-व्यवहार, तप आदि का विधान प्रस्तुत किया गया है । मूल सूत्र चार हैं । इनमें व्रत, अनुशासन आदि धार्मिक विषयों का विशद वर्णन है । पइण्ण (प्रकीर्ण) ग्रन्थों की संख्या १९ है । इनमें मनुष्य के जन्म, रोग सम्बन्धी उपचार, त्याग, मरण, जीवन आदि की विधियाँ दी गई हैं । दो चूलिका सूत्र हैं । इन्हें जैन धर्म का ज्ञानकोष कहा जा सकता है । ये सभी आगम ग्रन्थ साहित्यिक दृष्टि से भी काफी महत्त्वपूर्ण हैं । इनमें से अनेक में आलंकारिक भाषा तथा समासशैली का प्रयोग हुआ है।
कालान्तर में जैन-धर्म श्वेताम्बर तथा दिगम्बर – दो शाखाओं में बँट गया । श्वेताम्बर शाखा के अनुयायियों ने महाराष्ट्री तथा दिगम्बर ने शौरसेनी प्राकृत में साहित्य का निर्माण किया । इन प्राकृतों को जैन-महाराष्ट्री तथा जैन-शौरसेनी की संज्ञा दी गई है । इनमें गद्य-पद्य, सभी प्रकार की रचनाएँ लिखी गई हैं । गद्य-साहित्य का विभाजन निबंध, आख्यायिका, उपन्यास, कथा-चरित आदि विद्याओं में किया गया है ।
जैन साहित्य में श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में विस्तारसे प्रकाश डाला गया है । द्वादशांगी के अंतिम अंग का नाम दृष्टिवाद है । उसका एक विभाग अन्योग है । अनुयोग के दो भेद हैं - मूल प्रथमानुयोग और गंडिकानुयोग । गडिकानुयोग में अनेक गडिकाएँ थीं, उनमें एक गंडिका का नाम वासुदेव गंडिका है । उस गडिका में इस अवसर्पिणी काल के नौ वासुदेवों का विस्तार से वर्णन था । अंतिम वासुदेव श्रीकृष्ण हैं, अतः उनका भी उसमें सविस्तृत वर्णन होना चाहिए । पर खेद है कि आज वह गंडिका अनुपलब्ध १- (क) समवायांग सूत्र १४७
(ख) नन्दीसूत्र सूत्र ५६, पृ० १५१- १५२, मु.हस्तीमलजी, म.सा.
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास • 23