Book Title: Heervijay Suri Jivan Vruttant
Author(s): Kanhaiyalal Jain
Publisher: Atmanand Jain Tract Society

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Page 8
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३] (७) विपति शैल तब ही टूटा विधिका है क्रूर भयंकर चक्र, हस्ताक्षेपन हो सकता उसमें मारें भी सहकर वक्र । तेरह वर्षीयावस्था थी माता पिता गये परलोक, विजय मूरि को छोड़ गएथे वे केवल सहने को शोक ।। (८) वे यों होकर अहो ! निराश्रित, पाटन नगर गये तत्काल, उनकी बहन वहां बाही थी वहां रहे वे तब कुछ काल । "विजय सूर' विद्वानवर्य का उन्हें मिला सुख-प्रद सत्संग, जिनके उपदेशों को सुन कर हृदय बढ़ा वैराग्य-तरंग ।। तेरह वर्ष वयस में ही यो मुनिवर ने त्यागा संसार, *अंक-राम-कन्या-रवि का जब ईसा संवत था सुख कार । विजय दान सूरीश्वर ने तब उनको दीक्षा दान करी, निर्मल तप संयम दृढ़ता के जो थी उंचे भाव भरी ।। For Private And Personal Use Only

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