Book Title: Heervijay Suri Jivan Vruttant
Author(s): Kanhaiyalal Jain
Publisher: Atmanand Jain Tract Society

View full book text
Previous | Next

Page 26
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२१] ( ६१ ) * नभ - 2 - कन्या - ब्रह्म ईस्वी में पर तेजपाल समुदार की सुविनय पर मुनिवर ने स्वीकारा एक और भी भार । श्री शत्रुञ्जय तीर्थ धामपर आदीश्वर मन्दिर सुख धामके उद्घाटन की की धर्म क्रिया समापन मनोऽभिराम || ( ६२ ) पीछे अन्यतीर्थ क्षेत्रों में किया पर्यटन और निवास, वृद्ध वयस् में उन्हीं पुण्य क्षेत्रों में किया स्वर्ग आवास । पृथ्वी करत नेत्र - अङ्क- शर- शशि संवत् का थी जब भोग श्री श्री हीर विजय सूरीश्वर का तब हुआ असह्य वियोग || ( ६३ ) किन्तु धन्य है काल! तुम्हारी लीला, गति तब है अनिवार्य, प्रबल सभी से तुम हो तुम से बचना अहो ! असम्भव कार्य । तू विस्मृत की धूल डाल कर शूल हृदय का करता नष्ट, अति अस भी विरह वेदना कुछी काल में करता भ्रष्ट ॥ १५६०, ६१÷६२ For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34