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( ७३ )
जो जाति का, निज देश का, उपकार करते हैं सदा जो भव्य भावों से हृदय भाण्डार भरते हैं सदा । जग ज्योति कर जो मनुज विद्या दान देते हैं सदा उपदेश दें जो, जन हृदय-सम्मान लेते हैं सदा ||
(७४)
वे धन्य है ! जीवन उन्हों ने ही किया निज सार है सव मानता संसार उनकी पुण्य कृति का भार है वे देश जाति समाज जीवन और प्राणाधार हैं हैं धन्य वे नर श्रेष्ट उनके धन्य पर उपकार हैं ।।
(७५)
हे मुनिवरो ! आदर्श कृति उनकी भुला देना नहीं कर्तव्य विस्मृत कर वृथा अपयश उचित लेना नहीं उद्धार केवल स्वात्म का ही कुछ न मुनि का कर्म है उपकार " पर" करना सदा ही मुनि जनों का धर्म है ।।
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