Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 11
________________ गुणस्थान विवेचन ___२१ १७. प्रश्न : अब द्रव्यानुयोग का पक्षपाती कहता है कि इस शास्त्र में जीव के गुणस्थानादिरूप विशेष और कर्मों के विशेष (भेद) का वर्णन किया है; किन्तु उनको जानने से तो अनेक विकल्प-तरंग उत्पन्न होते हैं और कुछ सिद्धि नहीं है। इसलिए अपने शुद्धस्वरूप को अनुभवना अथवा स्व-पर का भेदविज्ञान करना, इतना ही कार्यकारी है। अथवा इनके उपदेशक जो अध्यात्म शास्त्र हैं, उन्हीं का अभ्यास करना योग्य है। उत्तर : हे सूक्ष्माभास बुद्धि ! तूने कहा वह सत्य है; किन्तु अपनी अवस्था देखना । यदि स्वरूपानुभव में तथा भेदविज्ञान में उपयोग निरन्तर रहता है, तो अन्य विकल्प क्यों करना ? वहाँ ही स्वरूपानन्द सुधारस का स्वादी होकर सन्तुष्ट होना; किन्तु निचली अवस्था में वहाँ निरन्तर उपयोग रहता ही नहीं, उपयोग अनेक अवलम्बनों को चाहता है। अत: जिस काल वहाँ उपयोग न लगे, तब गुणस्थानादि विशेष जानने का अभ्यास करना। तथा तूने कहा कि अध्यात्म शास्त्रों का ही अभ्यास करना, सो योग्य ही है; किन्तु वहाँ भेदविज्ञान करने के लिए स्व-पर का सामान्यपने स्वरूप निरूपण है और विशेष ज्ञान बिना सामान्य जानना स्पष्ट नहीं होता। इसलिए जीव और कर्मों के विशेष अच्छी तरह जानने से ही स्व-पर का जानना स्पष्ट होता है। उस विशेष जानने के लिये इस शास्त्र का अभ्यास करना; क्योंकि सामान्यशास्त्र से विशेषशास्त्र निश्चय से बलवान होता है, वही कहा है - सामान्य शास्त्रतो नूनं विशेषो बलवान भवेत् ।। १८. प्रश्न : अध्यात्मशास्त्रों में तो गुणस्थानादि विशेषों से रहित शुद्धस्वरूप का अनुभव करना उपादेय कहा है और यहाँ गुणस्थानादि सहित जीव का वर्णन है; इसलिए अध्यात्मशास्त्र और इस शास्त्र में तो विरुद्धता भासित होती है, वह कैसे है ? उत्तर : नय दो प्रकार के हैं - निश्चयनय और व्यवहारनय । निश्चयनय से जीव का स्वरूप गुणस्थानादि विशेष रहित, अभेदवस्तु मात्र ही है और व्यवहारनय से गुणस्थानादि विशेष सहित अनेक प्रकार हैं। वहाँ जो जीव सर्वोत्कृष्ट, अभेद, एक स्वभाव को अनुभवते हैं, सम्यग्ज्ञानचंद्रिका-पीठिका उनको तो वहाँ शुद्ध उपदेशरूप जो शुद्धनिश्चयनय है, वही कार्यकारी है। जो स्वानुभवदशा को प्राप्त नहीं हुए हैं तथा जो स्वानुभवदशा से छूटकर सविकल्पदशा को प्राप्त हुए हैं - ऐसा अनुत्कृष्ट जो अशुद्धस्वभाव, उसमें स्थित जीवों को व्यवहारनय प्रयोजनवान है। वही अध्यात्मशास्त्र समयसार गाथा-१२ में कहा है - सुद्धो सुद्धादेसो, णादव्वो परमभावदरसीहिं। ववहारदेसिदा पुण, जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे ।। इस गाथा की व्याख्या के अर्थ को विचार कर देखना । सुनो ! तुम्हारे परिणाम स्वरूपानुभव दशा में तो वर्तते नहीं और विकल्प जानकर गुणस्थानादि भेदों का विचार नहीं करोगे तो तुम इतो भ्रष्टः ततो भ्रष्टः, होकर अशुभोपयोग में ही प्रवर्तन करोगे, वहाँ तेरा बुरा ही होगा। और सुनो ! सामान्यपने से तो वेदान्त आदि शास्त्राभासों में भी जीव का स्वरूप शुद्ध कहते हैं, वहाँ विशेष को जाने बिना यथार्थ-अयथार्थ का निश्चय कैसे हो? इसलिये गुणस्थानादि विशेष जानने से जीव की शुद्ध, अशुद्ध एवं मिश्र अवस्था का ज्ञान होता है, तब निर्णय करके यथार्थ को अंगीकार करना । और सुनो ! जीव का गुण ज्ञान है, सो विशेष जानने से आत्मगुण प्रगट होता है, अपना श्रद्धान भी दृढ़ होता है। जैसे सम्यक्त्व है, वह केवलज्ञान प्राप्त होने पर परमावगाढ़ नाम को प्राप्त होता है, इसलिये विशेषों को जानना। १९. प्रश्न : आपने कहा वह सत्य; किन्तु करणानुयोग द्वारा विशेष जानने से भी द्रव्यलिंगी मुनि अध्यात्म श्रद्धान बिना संसारी ही रहते हैं और अध्यात्म का अनुसरण करनेवाले तिर्यंचादिक को अल्प ज्ञान होने पर भी यथार्थ श्रद्धान से सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है तथा तुषमाषभिन्नः इतना ही श्रद्धान करने से शिवभूति नामक मुनि मुक्त हुए हैं। अत: हमारी बुद्धि से तो विशेष विकल्पों का साधन नहीं होता । प्रयोजनमात्र अध्यात्म का अभ्यास करेंगे। उत्तर : द्रव्यलिंगी जिसप्रकार करणानुयोग द्वारा विशेष को जानता है,

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