Book Title: Gita Darshan Part 07
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 362
________________ गीता दर्शन भाग-7 प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः । न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ।। ७ ।। असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहरनीश्वरम् । अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम् । । ८ । । एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः । प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ।। ९।। और हे अर्जुन, आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कर्तव्य- कार्य में प्रवृत्त होने को और अकर्तव्य- कार्य से निवृत्त होने को भी नहीं जानते हैं। इसलिए उनमें न तो बाहर-भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्य भाषण ही है। तथा वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहते हैं कि जगत आश्रयरहित है और सर्वथा झूठा है एवं बिना ईश्वर के अपने आप स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ है। इसलिए जगत केवल भोगों को भोगने के लिए ही है। इसके सिवाय और क्या है? इस प्रकार इस मिथ्या - ज्ञान को अवलंबन करके नष्ट हो गया है स्वभाव जिनका तथा मंद है बुद्धि जिनकी, ऐसे वे सब का अहित करने वाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत का नाश करने के लिए ही उत्पन्न होते हैं। पहले कुछ प्रश्न | पहला प्रश्न : आश्चर्य की बात है कि पशुओं में पाखंड या मिथ्याचरण नाममात्र भी नहीं है और आदिवासियों में भी अत्यल्प है, जब कि तथाकथित शिक्षित व सभ्य समाज में सर्वाधिक है। तो क्या बर्बरता से सभ्यता की ओर मनुष्य की लंबी व कठिन यात्रा व्यर्थ ही गई ? और तब क्या आदिवासी व्यवस्था वरेण्य नहीं है ? प शुओं में मिथ्याचरण नहीं है, पाखंड नहीं है, इसलिए नहीं कि पशुओं की कोई उपलब्धि है, बल्कि इसलिए कि पशु असमर्थ हैं, पाखंडी हो नहीं सकते, होने का उपाय नहीं है; बुरे होने की कोई सुविधा नहीं है; पतित होने की कोई संभावना नहीं है। लेकिन चूंकि पशु पतित नहीं हो सकते, पशु दिव्यता का आरोहण भी नहीं कर सकते। जो गिर नहीं सकता, वह ऊपर भी उठ नहीं सकता। और जिसके जीवन में पाप की संभावना नहीं है, उसके जीवन में परमात्मा की संभावना भी नहीं है। पशु मूर्च्छित है; प्रकृति उससे जैसा कराती है, वह करता है। यंत्रवत उसकी यात्रा है। उसकी कोई स्वेच्छा नहीं है। इसलिए बुरा भी पशु कर नहीं सकता; भला भी नहीं कर सकता । प्रकृति जो | कराती है, वही करता है। पशु की अपनी कोई निजता नहीं है। | इसलिए पशु न तो असाधु हो सकता है न साधु; न महापापी हो सकता है न महा संत। पशु पशु ही रहेगा। पशु पूरा का पूरा पैदा होता है। उसकी कोई स्वतंत्रता नहीं है कि अपने को बदल ले, रूपांतरित कर ले। स्वभावतः, पशु पाखंडी नहीं है, लेकिन पशु यह भी स्मरण नहीं हो सकता कि वह पाखंडी नहीं है। और पाखंड को छोड़ने से जो जीवन में गरिमा आती है, वह भी पशु को नहीं हो सकती। मनुष्य की गरिमा यही है कि वह पाप कर सकता है, चाहे तो पाप करना छोड़ सकता है । छोड़ने की खूबी है, क्योंकि करने की सुविधा है। जहां आप कर ही न सकते हों, वहां छोड़ने का कोई | अर्थ नहीं है। नपुंसक ब्रह्मचारी हो, इसकी कोई सार्थकता नहीं है। ब्रह्मचर्य की सार्थकता तभी है, जब काम में उतरने की क्षमता हो । तो मनुष्य के लिए संभावना है कि गिर सके, और मनुष्य के लिए संभावना है कि उठ सके दोनों द्वार खुले हैं। मनुष्य परिपूर्ण स्वतंत्रता है । इसीलिए जिम्मेवारी आपकी है। अगर आप गिरते हैं, तो आप यह नहीं कह सकते कि प्रकृति ने मुझे गिराया। आप चाहते तो न गिरते। आप चाहते तो रुक जाते। आप चाहते तो जिस शक्ति से. | आपने पतन की यात्रा पूरी की, वही आपके स्वर्ग का मार्ग भी बन सकती थी । इसलिए मनुष्य स्वतंत्र है, और साथ ही जिम्मेवार है। 334 पश्चिम का बहुत बड़ा आधुनिक विचारक सार्त्र मनुष्य के लिए दो शब्दों का उपयोग करता है, एक है फ्रीडम, और दूसरा है रिस्पांसिबिलिटी। एक है परिपूर्ण स्वतंत्रता, और दूसरा है परिपूर्ण गहन दायित्व । जो स्वतंत्र है, उसका दायित्व भी है। जो स्वतंत्र नहीं, उसका कोई दायित्व भी नहीं है। हम किसी पशु को अच्छा नहीं कह सकते, बुरा नहीं कह सकते। जो पशु की दशा है, वही छोटे बच्चों की भी दशा है। जो पशु की दशा है, उससे ही मिलती-जुलती दशा आदिवासियों की है। वे कितने ही भले हों, उनके भलेपन में बहुत गौरव नहीं है। वे चोर न हों, तो भी हम उन्हें अचोर नहीं कह सकते। क्योंकि अचोर वे तभी हो सकते हैं, जब चोरी करने की उनको क्षमता हो, सुविधा हो, चोरी

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