Book Title: Gita Darshan Part 07
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 418
________________ * गीता दर्शन भाग-7* तो भी समझना कि वह मिटाने को ही बना रही है। वह बनाना वैसे ही है, जैसे आप घर में एक बकरा पाल लें। और उसे खूब खिलाएं, उसकी सेवा करें, क्योंकि उसको बलि के दिन काटना है। उसकी सेवा भी चले. धलाई भी चले. भोजन भी चले। ऐसे बकरे की कोई इतनी पूजा नहीं करता, जैसी आप करें। लेकिन बलि के दिन उसको काटकर फिर भोजन कर लेना है, वह तैयारी चल रही है। आप बना रहे हैं मिटाने के लिए। लक्ष्य मिटाना होगा, आसुरी संपदा में। लेकिन जिसको मिटाना है, उसे भी बनाना पड़ता है। क्योंकि बिना बनाए मिटाइएगा कैसे? दैवी संपदा में लक्ष्य होगा बनाना। अगर मिटाना भी पड़ता है, तो यही नजर होती है कि बनाएंगे। अगर नया मकान बनाना हो, तो पुराना मकान गिरा देना पड़ता है। पुराने मकान से जमीन साफ हो जाए, तो नया बन सके। सभी सृजन में विध्वंस छिपा है; सभी विध्वंस में सृजन छिपा है। लक्ष्य का फर्क है। दैवी संपदा हमेशा सोचती है, निर्मित करने को। अगर मिटाना भी पड़ता है, तो सिर्फ इसीलिए, ताकि कुछ और श्रेष्ठतर बन सके। आसुरी संपदा सदा सोचती है मिटाने को। अगर बनाना भी पड़ता है, तो सिर्फ इसीलिए कि बनाएंगे, ताकि मिटा सकें। उस लक्ष्य को खयाल में रखें, तो बात आसान हो जाएगी और ठीक से समझ में आ जाएगी। रस कहां है आपका? तोड़ने में रस है कि निर्माण करने में रस है? वही रस ध्यान में रहे, तो फिर आप कितना ही तोड़ें, हर्ज नहीं। लेकिन हर तोड़ना एक कदम हो बनाने के लिए। फिर आपके विध्वंस में भी सृजन आ गया; फिर आपके युद्ध में भी शांति आ गई; फिर आप कुछ भी करें, अगर यह लक्ष्य सदा ध्यान में बना रहे, तो आप जो भी करेंगे, वह शुभ होगा। जगत द्वंद्व है। वहां विध्वंस भी है, निर्माण भी है। उन दोनों में किसको आप ऊपर रखते हैं, उससे आपकी संपदा निर्णीत होगी। साफ ही है। अपने प्रति लागू करना आसान है, क्योंकि सा प्रत्येक व्यक्ति सोचता है, मैं साध्य हूं और सभी मेरे साधन हैं। लक्ष्य मैं हूं, यह पूरा जगत मेरे लिए है। आकाश मेरे लिए, चांद-तारे मेरे लिए, वक्ष-पौधे, पश-पक्षी मेरे लिए। मैं केंद्र हूं। यह तो कोई भी सोचता है। इसमें दैवी संपदा का सवाल ही नहीं है। यही तो आसुरी संपदा का केंद्र है कि मैं जगत का केंद्र हूं; सब | कुछ मेरे लिए घूम रहा है। मेरे लिए सब भी मिट जाए, तो भी कुछ | हर्ज नहीं है। मैं बचूं। सब कुछ मेरा साधन है, यही तो आसुरी संपदा का केंद्र है। दैवी संपदा का केंद्र यह है कि दूसरा लक्ष्य है, दूसरा साध्य है, उसका मैं साधन की तरह उपयोग न करूं। वह परम मूल्य है। उसकी सेवा तो मैं कर सकता हूं, लेकिन शोषण नहीं। अगर जरूरत पड़े मिटने की, तो उसके लिए मैं तो मिट सकता हूं, लेकिन उसको नहीं मिटाऊंगा। कभी-कभी जीवन के कुछ क्षणों में ऐसा आपको लगता है किसी व्यक्ति के संबंध में, उसको हम प्रेम कहते हैं। जब आपको ऐसा | सारे जगत के संबंध में लगने लगे, तो उसको हम प्रार्थना कहेंगे। कभी एक व्यक्ति के संबंध में ऐसा लगता है कि चाहे मैं मिट जाऊं, लेकिन यह व्यक्ति बचे तो वह साध्य हो गया। मां मर सकती है बच्चे के लिए, या पत्नी मर सकती है पति के लिए, या पति अपने को खो सकता है पत्नी के लिए। कभी एक व्यक्ति के साथ आपको क्षणभर को भी ऐसा लग जाता हो कि मैं ना-कुछ, वह सब कुछ; मैं परिधि, वह केंद्र; तो प्रेम घटा। ___ इसलिए प्रेम एक आध्यात्मिक घटना है। छोटी-सी घटना है, पर बड़ी मूल्यवान। चिनगारी है, सूरज नहीं; लेकिन अग्नि वही है, जो सूरज में होती है। और यह चिनगारी अगर फैलने लगे, तो किसी | दिन सूर्य भी बन सकती है। जिस दिन ऐसा सारे जगत के प्रति लगने लगे, उस दिन समझना कि प्रार्थना है। महावीर जमीन पर पांव फूंककर रखते हैं। चींटी भी न मर जाए, | क्योंकि उसका भी परम मूल्य है। चींटी भी साध्य है, वह हमारा साधन नहीं है कि हम उससे इस तरह व्यवहार कर सकें। कणाद वृक्षों से फल तोड़कर नहीं खाते। जो कण खेत में अपने | आप गिर जाते हैं सूखकर, पककर, उनको बीन लेते हैं। इसीलिए उनका नाम कणाद है; कण-कण बीनकर जीते हैं। कच्चे फल को भी तोड़ते नहीं, क्योंकि वृक्ष हमारा साधन नहीं है। वृक्ष का अपना चौथा प्रश्नः आपने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में साध्य है, परम मूल्य है। दैवी संपदा का यह सिद्धांत अपने प्रति तो आसानी से लागू किया जा सकता है, लेकिन दूसरों के प्रति उसे लागू करना बहुत कठिन है। ऐसा क्यों है? 390

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