Book Title: Gita Darshan Part 07
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 369
________________ * आसुरी व्यक्ति की रुग्णताएं * धन से बंधे होते हैं। को भोगने के लिए ही है। इसके सिवाय और क्या है? एक रास्ते से मैं गजर रहा था. अचानक एक भिखमंगे की | इस प्रकार इस मिथ्या-ज्ञान को अवलंबन करके नष्ट हो गया है आवाज मेरे कानों में पड़ी। बात ही कुछ ऐसी थी कि मैं रुक गया, | स्वभाव जिनका तथा मंद है बुद्धि जिनकी, ऐसे वे सबका अहित और सुनने जैसी बात थी। एक सज्जन गुजर रहे थे, भिखमंगा उनसे करने वाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत का नाश करने के लिए ही भीख देने का आग्रह कर रहा था कि कुछ भी दे जाओ, दो पैसे उत्पन्न होते हैं। सही। भले आदमी थे, खीसे में हाथ डाला; लेकिन घूमने निकले बहुत-सी बातें इस सूत्र में समझने जैसी हैं और गहरे में जाने थे शाम को, कोई पैसे खीसे में थे नहीं। तो कहा, माफ करना, पैसे | | जैसी हैं। खीसे में हैं नहीं; दुबारा जब आऊंगा, तो खयाल से पैसे ले आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कर्तव्य में प्रवृत्त होने और अकर्तव्य आऊंगा। तो उस भिखमंगे ने कहा, मार जा, तू भी मार जा मेरे पैसे! से निवृत्त होने को नहीं जानते हैं...। इसी तरह वायदा कर-करके लोग लाखों रुपए मार चुके हैं। क्या करने जैसा है, क्या करने जैसा नहीं है, इसका उन्हें कुछ भिखमंगा है। वह कह रहा है, लाखों रुपए लोग मार चुके हैं इसी | | भेद नहीं होता, वे जो आसुरी संपदा वाले लोग हैं। क्या कर्तव्य है? तरह वायदा कर-करके कि फिर आ जाएंगे, फुटकर पैसे नहीं हैं, कर्तव्य की क्या परिभाषा है ? किसे हम कहें कि यह करने जैसा है ? अभी छुट्टे पैसे नहीं हैं, अभी कुछ खीसे में नहीं है। वह जो लाखों __ योग कर्तव्य की परिभाषा करता है, जिससे भी आनंद बढ़ता हो, उसके पास कभी नहीं रहे हैं. वह उनका दख है उसको कि लोग वही कर्तव्य है। और मजे की बात यह है कि जिससे हमारा आनंद मार गए हैं उससे। बढ़ता है, उससे हमारे आस-पास जो हैं, उनका भी आनंद बढ़ता ___ अमीर धन से बंधा हो, समझ में आ जाता है। गरीब भी धन से है। जिससे हमारे आस-पास जो हैं, उनका आनंद बढ़ता है, उससे बंधा है। और धन से हम ऐसे चिपट जाते हैं, जैसे वह हमारी आत्मा | हमारा भी आनंद बढ़ता है। आनंद एक संयुक्त घटना है। है। फिर इसी भांति हम सब तरह की चीजों से जुड़ जाते हैं, | दुख भी संयुक्त घटना है। जिससे हमारा दुख बढ़ता है, उससे तादात्म्य, आइडेंटिटी बना लेते हैं, यह मैं हूं। और जिससे भी हम हमारे आस-पास भी दुख बढ़ता है। जिससे हमारे आस-पास दुख जुड़ जाते हैं, वह हमारी सीमा बन गया। बढ़ता है, उससे हमारा दुख भी बढ़ता है। दुख भी एक संयुक्त तो अपने को जितनी ज्यादा चीजों से कोई जोड़ेगा, उतने बंधन घटना है। में होगा; और जितना चीजों से अपने को तोड़ेगा, उतना मुक्त __ आप किसी दूसरे को दुखी करके सुखी नहीं हो सकते। चाहे होगा। और जिस दिन सिर्फ यही अनुभव रह जाएगा कि मैं किसी क्षणभर को आप अपने को धोखा दें कि मैं सुखी हो रहा हूं, लेकिन से भी बंधा नहीं हूं, कुछ भी मेरा नहीं है, सिर्फ मैं ही हूं, मेरा स्वभाव यह असंभव है। यह नियम नहीं है। यह हो नहीं सकता। आप दूसरे ही बस मेरा होना है, उस दिन मुक्ति है। को दुखी करके सिर्फ दुखी ही हो सकते हैं। दैवी संपदा उस जगह ले जाती है, जहां आप अकेले बचते हैं। ___ यह तो हो भी सकता है कि आप दूसरे को दुखी करें और वह आसुरी संपदा वहां ले जाती है, जहां आपको छोड़कर और सब | | दुखी न हो, लेकिन आप तो दुखी होंगे ही। क्योंकि अगर वह कुछ बच जाता है। आदमी ज्ञानी हो, बोधपूर्ण हो, बुद्ध पुरुष हो, तो आपके दुखी करने अब हम सूत्र को लें। से दुखी नहीं होगा। लेकिन आपकी दुखी करने की जो चेष्टा है, और हे अर्जुन, आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कर्तव्य-कार्य में | वह आपको तो निश्चित ही दुखी कर जाएगी। प्रवृत्त होने को और अकर्तव्य-कार्य से निवृत्त होने को भी नहीं | जगत एक प्रतिध्वनि है। हम जो करते हैं, वह हम ही पर आकर जानते हैं। इसलिए उनमें न तो बाहर-भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ बरस जाता है, चाहे थोड़ी देर-अबेर हो जाती हो। उसी देर-अबेर के आचरण है और न सत्य भाषण ही है। कारण ही हम इस भ्रांति में पड़ जाते हैं कि इससे कोई संबंध नहीं है। तथा वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहते हैं कि जगत | लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि हम कुछ भी बुरा नहीं कर आश्चर्यरहित और सर्वथा झठा है एवं बिना ईश्वर के अपने आप रहे हैं, फिर भी दुखी हैं। स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ है। इसलिए जगत केवल भोगों। उनकी गलती है। यह असंभव है। वे जरूर कुछ कर रहे हैं; वे 341

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