Book Title: Gita Darshan Part 07
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 412
________________ * गीता दर्शन भाग-7 आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः। | चाहती है। साधना तो आपको दोनों का साक्षी बनाना चाहती है। यजन्ते नामयजैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् ।। १७ ।। इस जगत में तीन दशाएं हैं। एक बुरे मन की दशा है, एक अच्छे अहंकारं बलं दर्प कामं क्रोधं च संश्रिताः । मन की दशा है और एक दोनों के पार अमन की, नो-माइंड की मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः । । १८।। दशा है। साधना का प्रयोजन है कि अच्छे-बुरे दोनों से आप मुक्त तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान् । | हो जाएं। और जब तक दोनों से मुक्त न होंगे, तब तक मुक्ति की क्षिपाम्यजसमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ।। १९ ।। कोई गुंजाइश नहीं। आसुरी योनिमापना मूठा जन्मनि जन्मनि । अगर आप अच्छे को पकड़ लेंगे, तो अच्छे से बंध जाएंगे। बुरे माम्प्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ।। २०।। को छोड़ेंगे, बुरे से लड़ेंगे, तो बुरे के जो विपरीत है, उससे बंध वे अपने आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमंडी पुरुष बन और | जाएंगे। चुनाव है; कुएं से बचेंगे, तो खाई में गिर जाएंगे। लेकिन मान के मद से युक्त हुए, शास्त्र-विधि से रहित केवल अगर दोनों को न चुनें, तो वही परम साधक की खोज है कि कैसे नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखंड से यजन करते हैं। वह घड़ी आ जाए, जब मैं कुछ भी न चुनः अकेला मैं ही बचूं; मेरे तथा वे अहंकार, बल, घमंड, कामना और क्रोधादि के ऊपर कुछ भी आरोपित न हो। न मैं बुरे बादलों को अपने ऊपर परायण हुए एवं दूसरों की निंदा करने वाले पुरुष अपने और ओदं, न भले बादलों को ओढूं। मेरी सब ओढ़नी समाप्त हो जाए। दूसरों के शरीर में स्थित मुख्य अंतर्यामी से द्वेष करने वाले हैं। मैं वही बचुं, जो मैं निपट अपने स्वभाव में हूं। ऐसे उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को यह जो स्वभाव की सहज दशा है, इसे न तो आप अच्छा कह मैं संसार में बारंबार आसुरी योनियों में ही गिराता हूं। सकते और न बुरा। यह दोनों के पार है, यह दोनों से भिन्न है, यह इसलिए हे अर्जुन, वे मूढ पुरुष जन्म-जन्म में आसुरी योनि दोनों के अतीत है। को प्राप्त हुए, मेरे को न प्राप्त होकर, उससे भी अति नीच लेकिन साधारणतः साधना से हम सोचते हैं, अच्छा होने की गति को ही प्राप्त होते हैं। | कोशिश। उसके कारण हैं, उस भ्रांति के पीछे लंबा इतिहास है। समाज की आकांक्षा आपको अच्छा बनाने की है। क्योंकि समाज बुरे से पीड़ित होता है, समाज बुरे से परेशान है। इसलिए पहले कुछ प्रश्न। अच्छा बनाने की कोशिश चलती है। समाज आपको साधना में ले पहला प्रश्नः कल कहा गया कि दनिया में अच्छाई जाना नहीं चाहता। समाज आपको बुरे बंधन से हटाकर अच्छे और बुराई का संतुलन है। ये दोनों सदा ही सम बंधन में डालना चाहता है। परिमाण हैं। एक बुरा मिटता है, तो अच्छा भी कम समाज चाहता भी नहीं कि आप परम स्वतंत्र हो जाएं, क्योंकि होता है। अगर इस संतुलन में कभी बदल होने वाला परम स्वतंत्र व्यक्ति तो समाज का शत्रु जैसा मालूम पड़ेगा। समाज नहीं है, तो साधना का प्रयोजन क्या है? चाहता है. रहें तो आप परतंत्र ही: पर समाज जैसा चाहता है. उस ढंग के परतंत्र हों। समाज आपको अच्छा बनाना चाहता है, ताकि समाज को कोई उच्छृखलता, कोई अनुशासनहीनता, आपके द्वारा 7 श्न महत्वपूर्ण है। साधकों को गहराई से सोचने | | कोई उपद्रव, बगावत, विद्रोह न झेलना पड़े। प्र जैसा है। समाज आपको धार्मिक नहीं बनाना चाहता, ज्यादा से ज्यादा साधना के संबंध में हमारे मन में यह भ्रांति होती है कि | नैतिक बनाना चाहता है। और नीति और धर्म बड़ी अलग बातें हैं। साधना भलाई को बढ़ाने लिए है। साधना का कोई संबंध भलाई को | नास्तिक भी नैतिक हो सकता है; और अक्सर जिन्हें हम आस्तिक बढ़ाने से नहीं है; न साधना का कोई संबंध बुराई को कम करने से कहते हैं, उनसे ज्यादा नैतिक होता है। ईश्वर के होने की कोई है। साधना का संबंध तो दोनों का अतिक्रमण, दोनों के पार हो जाने जरूरत नहीं है आपके अच्छे होने के लिए; न मोक्ष की कोई जरूरत से है। साधना न तो अंधेरे को मिटाना चाहती है, न प्रकाश को बढ़ाना है। आपके अच्छे होने के लिए तो केवल एक विवेक की जरूरत 384

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