Book Title: Gita Darshan Part 07
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 413
________________ * जीवन की दिशा * है। तो नास्तिक भी अच्छा हो सकता है, नैतिक हो सकता है। | मनोदशा के कारण, धर्म की यह जो परम आत्यंतिक धारणा है, ___धर्म कुछ अलग ही बात है। धर्म का इतने से प्रयोजन नहीं है कि दोनों के पार हो जाना, उससे हमें भय लगता है। आप चोरी नहीं करते। नहीं करते, बड़ी अच्छी बात है। लेकिन चोरी | | लेकिन अगर आप समझेंगे साधना का अर्थ, साधना का अर्थ न करने से कोई मोक्ष नहीं पहुंच जाता है। जब चोरी करने वाले को है, धीरे-धीरे बाहर से भीतर की तरफ जाना। कुछ नहीं मिलता, तो चोरी से बचने वाले को क्या मिल जाएगा! जब ___ अच्छाई भी बाहर है, बुराई भी बाहर है। अगर आप चोरी करते धन इकट्ठा करने वाले को कुछ नहीं मिलता, जब धन इकट्ठा | हैं. तो भी आपके अतिरिक्त किसी और का होना जरूरी है। अकेले कर-करके कुछ नहीं मिलता, तो धन छोड़कर क्या मिल जाएगा! | आप कैसे चोरी करिएगा? अगर इस पृथ्वी पर आप अकेले रह अगर धन इकट्ठा करने से कुछ मिलता होता, तो शायद धन छोड़ने जाएं, सारा समाज नष्ट हो जाए; युद्ध हो जाए तीसरा, सब नष्ट हो से भी कुछ मिल जाता। जब काम-भोग में डूब-डूबकर कुछ नहीं | | जाएं, आप भर अकेले बचें; आप चोरी कर सकिएगा फिर? मिलता, तो उनको छोड़ने से क्या मिल जाएगा! वह कचरा है, उसको किसकी चोरी करिएगा? चोरी का अर्थ ही क्या होगा? छोड़कर मोक्ष नहीं मिल जाने वाला है। यह थोड़ा कठिन है समझना। अगर आप अकेले हैं, तो चोरी नहीं कर सकते। अगर अकेले एक बात ध्यान रखें, जिस चीज से लाभ हो सकता है, उससे हैं, तो दान कर सकिएगा? दान के लिए भी दूसरे की जरूरत है। हानि हो सकती है। जिससे हानि हो सकती है, उससे लाभ हो | | तो चोरी हो या दान, नीति हो या अनीति, पुण्य हो या पाप, ये सकता है। लेकिन जिस चीज से कोई लाभ ही न होता हो, उससे | | सब बाहर की घटनाएं हैं। लेकिन सारी दुनिया नष्ट हो जाए और कोई हानि भी नहीं हो सकती। अगर धन के इकट्ठा करने से कोई | आप अकेले बचें, तो भी ध्यान कर सकते हैं। ध्यान का दूसरे से भी लाभ नहीं होता, तो धन के इकट्ठा करने से कोई हानि भी नहीं | | कुछ संबंध नहीं है। ध्यान आंतरिक घटना है। इसलिए ध्यान भीतर हों सकती। ले जाता है। धार्मिक व्यक्ति धन के इकट्ठा करने को मूढ़ता मानता है, बुराई | | पुण्य भी बाहर भटकाता है, पाप भी बाहर भटकाता है। अच्छाई नहीं। वह बाल-बुद्धि है। धर्म कामवासना में डूबे व्यक्ति को पापी भी बाहर, बुराई भी बाहर। अच्छाई भी समाज में, बुराई भी समाज नहीं कहता, सिर्फ अज्ञानी कहता है। उसे पता नहीं कि वह क्या कर में। उन दोनों का कोई अंतस्तल से संबंध नहीं है। रहा है। तो धर्म की कोई इच्छा नहीं है कि आप, जिन-जिन चीजों साधना का अर्थ है, ध्यान। साधना का अर्थ है, अंतर्मुखता। को समाज बुरा कहता है, उन्हें छोड़ देंगे, तो आप मुक्त हो जाएंगे। साधना का अर्थ है, उसे मैं जानूं जो मैं अपनी निजता में हूं; जिसका सज्जन पुरुष हमारे बीच हैं, फिर भी मोक्ष उनसे उतना ही दूर है, दूसरे से संबंधित होने का कोई संबंध नहीं है। साधना का संबंध जितना दुर्जन से; उस दूरी में कोई फर्क नहीं पड़ता। मोक्ष की दूरी रिलेशनशिप, संबंधों से जरा भी नहीं है। साधना का संबंध है स्वयं में तो तभी कमी होनी शुरू होती है, जब आप न दुर्जन रह जाते, न | | से; मैं उसे जान लूं, जो मैं हूं। सज्जन; न साधु, न असाधु; क्योंकि इन दोनों का द्वंद्व है। और जब तो न तो चोरी करके कोई उसे जान पाता है, न चोरी छोड़कर कोई तक द्वंद्व नहीं टूटता, तब तक परमहंस अवस्था नहीं आती। | उसे जान पाता है। चोर भी भटकते हैं, जो चोरी नहीं करते, वे भी साधना का प्रयोजन है, परमहंस अवस्था आ जाए। इससे हमें | | भटकते हैं। न तो बुरा करके उसे कोई कभी जाना है, न भला करके डर भी लगता है। क्योंकि अगर कोई व्यक्ति बुराई-भलाई दोनों | | कभी कोई उसे जाना है। उसे जानने वाले को तो सभी करना छोड़ छोड़ दे, जैसे ही हम यह सोचते हैं, तो हमें डर लगता है कि वह | | देना पड़ता है, बुरा भी, भला भी। उसे तो भीतर अक्रिया में डूब जाना आदमी बुरा हो जाएगा। | पड़ता है। उसे तो बाहर से आंख ही बंद कर लेनी पड़ती है। __ अगर आपसे कहा जाए कि बुराई-भलाई दोनों छोड़ दो, तो उसके लिए कामवासना भी व्यर्थ है, उसके लिए ब्रह्मचर्य भी दो आपके मन में तत्क्षण बुरे करने के विचार आएंगे। भलाई तो छोड़ना | कौड़ी का है। क्योंकि ब्रह्मचर्य और कामवासना दोनों एक ही सिक्के बिलकुल आसान है। उसको तो कभी पकड़ा ही नहीं है, इसलिए | के दो पहलू हैं। वे अलग-अलग बातें नहीं हैं। आपको ब्रह्मचर्य छोड़ने का कोई प्रश्न नहीं है। आपको अगर पता चले कि दोनों मूल्यवान दिखाई पड़ता है, क्योंकि कामवासना में आपको रस है। बेकार हैं, तो आप तत्क्षण बुराई करने में लग जाएंगे। उस खुद की जिस दिन कामवासना में कोई रस न रह जाएगा, उस दिन ब्रह्मचर्य 385

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