Book Title: Gita Darshan Part 07
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 386
________________ * गीता दर्शन भाग-7 कान रखकर देखा, तो आवाज; सिर के पास कान रखकर देखा, | है; पर क्या करें, मजबूरी है, क्रोध हो जाता है। तो मैं उनसे कहता तो आवाज। | हूं, तुम गलती कर रहे हो, तुम पूरी बात को ही उलटा समझ रहे जब कोई व्यक्ति ठीक से स्मरण करता है, पाठ करता है, वेद के | हो। तुम्हें मालूम ही नहीं कि क्रोध बुरा है। यह तुमने सुना है; और वचन को अपने में डूब जाने देता है, तो रोएं-रोएं से वही प्रतिध्वनित तुम सोचते हो, सुना हुआ तुम्हारा ज्ञान हो गया। तुम्हें पता हो जाए होने लगता है। उस प्रतिध्वनि के क्षण में आपको समझ आएगा, क्या | | कि क्रोध बुरा है, तो जैसे आग में हाथ डालना मुश्किल है, वैसे ही आसुरी है, क्या दैवी है। उसके पहले समझ नहीं आ सकता। क्रोध में भी हाथ डालना मुश्किल हो जाएगा। शायद ज्यादा ये दो उपाय हैं। हिम्मत हो, तो जीवित पुरुष खोज लेना चाहिए; | | मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि आग तो केवल शरीर को जलाती है, हिम्मत कमजोर हो, तो प्रज्ञावान पुरुषों के मरे हुए वचन शास्त्रों में | | क्रोध तो भीतर तक झुलसा देता है। संगृहीत हैं, उनकी शरण चले जाना चाहिए। लेकिन फिर भी दोनों में हिम्मत की तो जरूरत है ही, क्योंकि शरण जाए बिना कोई भी उपाय नहीं है। कहीं अपने को खोना होगा, आखिरी प्रश्न ः मंजिल पर पहुंचकर प्रज्ञावान पुरुष को छोड़ना होगा; कहीं अपनी अस्मिता को हटाकर रख देना होगा। तब यही पता चलता है कि स्वयं को जानना असंभव है, जैसे बिजली कौंध जाए और अंधेरे में रास्ता दिखाई पड़ने लगे, क्योंकि वहां ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान सब एक हो जाते ठीक ऐसे ही, क्या दैवी है, क्या आसुरी है, उसकी प्रतीति होने हैं। इस हालत में वे हमें क्यों समझाते हैं कि स्वयं लगती है। को जानो? इसमें उनका अभिप्राय क्या है? और ध्यान रखें, जैसे ही प्रतीत होता है कि यह आसुरी और यह दैवी, वैसे ही जीवन में परिवर्तन शुरू हो जाता है। क्योंकि जिसको प्रतीत हो जाए कि यह आसुरी वृत्ति है, फिर उस वृत्ति में रहना श्चित ही, उस परम अवस्था में ज्ञाता भी खो जाता है, असंभव है। ज्ञान भी खो जाता है, ज्ञेय भी खो जाता है। यह जो हम तभी तक आसुरी वृत्ति में रह सकते हैं, जब तक हमें लगता त्रिवेणी है, यह खोकर एक ही धारा बन जाती है। हो कि यह दैवी वृत्ति है। हम तभी तक असत्य में जी सकते हैं, जब | गंगा, यमुना, सरस्वती तीनों खो जाती हैं, सागर ही रह जाता है। तक हमें लगता हो कि यह सत्य है। और हम तभी तक दुख में जी | | वह जो खोजने चला था, वह भी नहीं बचता; जिसे खोजने चला सकते हैं, जब तक हमने दुख को सुख माना हो। | था, वह भी नहीं बचता। फिर भी कुछ बचता है। और जो बचता दुख दुख दिखाई पड़े, छुटकारा शुरू हो गया। असत्य असत्य | है, वह तीनों से बड़ा है। जो बचता है, वह तीनों से ज्यादा है। जो मालूम पड़े, क्रांति शुरू हो गई। आसुरी है हमारी संपदा, ऐसा बोध | खो जाता है, वह तो कचरा था। जो बचता है, वही सार है। हो जाए, उस संपदा से हमारे हाथ अलग होने लगे। हम उसे ही फिर भी प्रज्ञावान पुरुष आपसे कहते हैं, स्वयं को जानो। क्या पकड़ते हैं, जिसे हम ठीक समझते हैं। वह गलत हो, पर हमारी | | मिटाने के लिए आमंत्रण देते हैं? समझ में ठीक है, तो हम पकड़ते हैं। जैसे ही समझ आ जाती है कि __ अगर मिटना ही मिटना होता और कुछ पाना न होता, तो यह गलत है, छूटना शुरू हो जाता है। आमंत्रण न दिया जाता। एक तरफ से मिटना है और दूसरी तरफ से सुकरात का प्रसिद्ध वचन है, नालेज इज़ व→, ज्ञान सदाचरण | होना है। जो आप हैं, वह खो जाएगा। और जो आपका वास्तविक होना है, वह बचेगा। जो आपका झठा-झठा होना है, वह तिरोहित जैसे ही कोई जान लेता है कि ठीक क्या है, ठीक करना शुरू हो हो जाएगा। और जो आपकी शाश्वत सत्ता है, जो आपका सनातन जाता है। जब तक हम सोचते हैं कि हमें पता है कि ठीक क्या है; स्वरूप है, वह बचेगा। आप खो जाएंगे, जैसा आप अपने को अभी फिर भी क्या करें, हम गलत करते हैं! तब तक जानना कि हमें पता | | समझते हैं। और जैसा आपने कभी अपने को नहीं समझा, लेकिन ही नहीं है कि ठीक क्या है। | आप हैं, वह बच रहेगा। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमें मालूम है कि क्रोध बुरा । तो प्रज्ञावान पुरुष आपको बुलाते हैं कि मिटो, ताकि हो सको। है। | 358|

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