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गणितानुयोग : प्रस्तावना ३१ चौबीसवीं पूर्णिमा ग्रहण करने हेतु, बारहवीं पूर्णिमा जहाँ सूत्र १००२, पृ० ४८६होती है उससे १२ और पूर्णिमाएँ होती हैं। बारहवीं पूर्णिमा का
बिनमान की व्यवस्था इस सूत्र में १८ मुहूर्त से लेकर १२ ध्रुवांक २८८ होता है इसलिए २४वीं पूर्णिमा को २८८४१२ =
मुहूर्त तक की गयी है। यह किसी विवक्षित स्थान की उत्तरी ३४५६ भाग आगे जाकर प्राप्त करते हैं। इस प्रकार २३वीं पूर्णिमा की समाप्ति स्थल से पर मण्डल को १२४ से विभक्त कर
अक्षांश वाले प्रदेश में जो अफगानिस्तान के चित्राल के समीपवर्ती
हो वहाँ होती रहती है, जहाँ से ये अवलोकन किये गये होंगे। उसमें का ३४५६ भाग ग्रहण कर २४वीं पूर्णिमा को चन्द्र समाप्त
प्रश्न है कि क्या चित्रा पृथ्वी का जो वर्णन आया है, वह उक्त करता है। ___इसी प्रकार ६२वीं पूर्णिमा का मण्डल प्रदेश ज्ञात करने हेतु
अवलोकनकर्ता का स्थल वही था? क्या बेविलन निवासी से सम ६२ को ३२ से गुणित पर १९८४ प्राप्त होता है। इसे १२४
अक्षांशों में रहने वाले भारतीयों ने उत्तर और दक्षिण गोलार्धा द्वारा विभक्त करने पर १६ प्राप्त होता है। यह मण्डल पूर्णांक
में अपने ऐसे ही अवलोकन केन्द्र बनाये थे। इस सम्बन्ध में शर्मा
एवं लिश्क का निम्नलिखित शोध लेख दृष्टव्य है : है जिसमें युग की अन्तिम पूर्णिमा समाप्त होती है । जम्बूद्वीप में जीवा रूपरेखा से पूर्णिमा परिणमनरूप मंडल को १२४ से विभक्त "लेंग्थ ऑफ डे इन जैन एस्ट्रानामी, सेंटारस, १९७८; भाग करते हैं। चार दिशाओं में ३१-३१ भाग होते हैं।
२२, क्र० ३, पृ० १६५-१७६ । इनके अनुसार हो सकता है उक्त ___इनमें २७ भागों को लेकर अलग रख देते हैं । पश्चात् २८वें स्थल गान्धार रहा हो।" भाग के २० भाग करके उनमें से १८ भागों को पृथक करते हैं, जिससे यहां २ भाग शेष रहते हैं। ३१ में से २७ भाग निकल
भूमध्यरेखावर्ती स्थलों पर १५-१५ मुहूर्त का दिन होता जाने पर ४ भाग रहते हैं। जिनमें ३ भाग ३१-२८=३ शेष
है। कुल १८३ मण्डलों में प्रतिदिन चलते हुए रहते हैं और यहां २०-१५-२ शेष रहते हैं। अतः ३ शेष
मुहूर्त अथवा भागों से चतुर्थ भाग २ कला पश्चात् स्थित अर्थात् २६वें चतुर्भाग मण्डल को बिना प्राप्त किये अर्थात् २६वें मण्डल के चतुर्थ भाग मुहूर्त वृद्धि होती है । इसी प्रकार दिन हानि का प्रकरण है। मण्डल में २ कला से अधिक प्रदेश में चन्द्र गमन नहीं करता हैअतः वहीं ६२वीं पूर्णिमा समाप्त होती है।
यह माध्य रूप है। देखिए ति० प०, भाग २, माथा २७६, यह शोध का विषय है। इसे चित्र द्वारा तथा सूर्य चन्द्र की २२० । मण्डल गति द्वारा भी स्पष्ट किया जाना चाहिए। यहाँ ३२ को ध्र वांक माना गया है। इसे Pole-Number कहना चाहिए सूत्र १००३ पृ० ४६५-४६८जो Modulus के रूप में स्थिति की व्यवस्था करता है। शेष यहाँ सूर्य का गमन सर्वाभ्यन्तर मंडल से सर्वबाह्यान्तर मंडल पूर्णिमाएँ ३२ के गुणनखण्ड रूप मण्डलों में प्रकट होती हैं । १२४
तक तथा इसका विलोम रूप वर्णन किया है। स्पष्ट है कि ६ भाग क्यों लिए गये, क्यों ६२+६२= १२४ कुल ये घटनास्थल माह तक सूर्य १८३ मण्डलों में किसी एक दिशा में चलता अवहैं जो मण्डल में ही प्रकट होते हैं।
लोकित होता है और उसके पश्चात् निश्चित उससे विलोम दिशा -सूत्र ६६०, पृ० ४७८ -
में गमन करता दृष्टिगत होता है। इससे स्पष्ट है कि उत्तरी इसी प्रकार चन्द्र का अमावस्याओं में योग की गणना हेतु ध्रुव में ६ माह का दिन और ६ माह की रात्रि कही गई है। 'ध्र वांक' पुन: ३२ है और पर मण्डल के १२४ विभाग कर उनमें यहाँ उसे ही दूसरे रूप में प्रकाश को लेकर कथन है कि इस ३२-३२ भागों पर ६२वीं अमावस्या समाप्ति मण्डल के आगे प्रकार ६ माह तक प्रकाश सूर्य के दक्षिणायन से लेकर उत्तरायण प्रदेश प्राप्त करना होता है। ६२वीं अमावस्या का मण्डल प्रदेश होने तक बढ़ता रहता है । यह उत्तरार्ध में पाया जाता है। इसी प्राप्त करने हेतु ६२वी पूर्णिमा समाप्ति मण्डल के पर मण्डल के प्रकार विलोम रूपेण प्रक्रिया देखने में आती है। इस प्रकार १६ भागों को लेकर १२४ विभक्त मण्डल में से अलग रहते हैं। गणित द्वारा जैन सिद्धान्त के मर्म को आधुनिक अन्य घटनाओं अर्द्ध-अर्द्ध भागों में पूर्णिमा अमावस्या होना इसका कारण है। को समझाने में प्रयुक्त करना आवश्यक है। जो प्रतिरूप जैन इस प्रकार इस मण्डल प्रदेश से पहले १२४ या सोलह भागों से सिद्धान्त में निर्मित किये गये उनका आशय विषय को समझाना न्यून मण्डल प्रदेश में ६२वीं अमावस्या समाप्त होती है। यह भी था और उनके द्वारा हजार डेढ़हजार वर्षों तक समस्त ज्योतिष शोध का विषय है।
की घटनाएँ स्पष्ट की जाती रहीं।