Book Title: Gahuli Sangrahanama Granth
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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(१४) ॥ अथ गहूंली बाशमी ॥
॥ हाररो हीरो माहोरो साहेबो ॥ ए देशी ॥ || जगगुरु जगचिंतामणि ॥ सहियर मोरी ॥ जगबंधव जगात हो ॥ द्वारिका नगरी समोसख्या ॥ सहि || बावीशमा जगतात हो ॥ उलट आणी एतो, लाज ने जाणी एतो, पुण्यनी खाणी, शुद्ध श्राविका ॥ ज वितमे गहूंली करो मनरंग हो ॥ १ ॥ हरि वांदी नमी करी ॥ सहि० ॥ बेठा वे कर जोडी हो ॥ श्रम तसम जिनदेशना || सहि० ॥ सांजले मनने खोडी हो ॥ जल० || लाज० ॥ पुण्य० ॥ शुद्ध० ॥ नवि० ॥ ॥ २ ॥ श्याम शरीरें शोजता ॥ सहि० ॥ तेज तो नहिं पार हो । जबक बनी जिनराजनी ॥ सहि० ॥ विश्व मानस हितकार हो || उल० || लाज० ॥ ॥ पुण्य० ॥ शुद्ध० ॥ जवि० ॥ ३ ॥ धन्य धन्य राणी रुक्मिणी ॥ सहि० || व्रत भूषण अंग हो । तप सुघाट घूंटी समो ॥ सहि० ॥ चूनडी सु शील सुचंग हो ॥ उघ० ॥ लाज० ॥ पुण्य० ॥ शुद्ध० ॥ जवि० ॥ ४ ॥ क्रिया कुंकावटी कर यही ॥ सहि० ॥ जिनगुण कुमकुम घोले हो ॥ मननि र्मल जल जेलती ॥ सहि० ॥ चित्त उल्लसी मनरंग
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