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(१४४) ष्टादश दोय चार ॥ शु०॥ चा॥५॥ जिनप्रतिमा जिनसारखी रे लोल, शेषनजी पूर्व प्रसिद्ध ॥शुप ॥चा॥अष्टापद गिरि सिक थया रे लोल, नलिन पुरें कस्यो विकाम ॥ शु०॥चा॥६॥ शेष नरसी सुत हीरजीरे लोल, कुंअर अंग सुजात ॥ शु॥ चा॥ तस जार्या शुक्कपक्षिणी रे लोल, उत्तम कूलें उत्पन्न। शु०॥ चा॥७॥ दान शीयस तपस्या गुणे रे लोल, पूरबाई जग विख्यात ॥ शु॥ चा०॥ सुगुरु संजोग उपदेशथी रे लोल, चैत्य कस्यां चोसार ॥ शु०॥ चा॥७॥समकितदृढ गुण आत्मा रे लोल, ज्ञान जक्ति निमित्त ॥ शु०॥ सफल जयो दिन श्राजनो रे लोल, देवयात्रा फल सि ॥ शुण्॥ चा॥ ए॥ कल्पवृक्ष फल्यो पुण्य अंकूरथी रे लोल, मुक्ति वस्या सुख जरपूर ॥ शु०॥ चा०॥१०॥ इति ॥ १२४ ॥
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जति श्रीगढूंसी संग्रहास्य पुस्तकस्य
र प्रथमनाग समाप्तः॥ ESSASS 525255250
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