Book Title: Gahuli Sangrahanama Granth
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

View full book text
Previous | Next

Page 137
________________ (१३६) म० ॥ गु०॥ आचारज पद पामिया ॥ गु०॥ तिहां शोने शुज शनि वार ॥ म ॥ गु०॥ ६ ॥ गीतारथ गुरु आगंलें ॥ गु० ॥ शिष्य शोने सवि सार ।। म॥ गुण ॥ जाचकजन संतोषिया ॥गु०॥ जस वध्यो मन प्यार ॥ म॥ गुण ॥७॥ मुक्ताफल मूठी जरी गुण ॥ रचे गहूंली परम उदार ॥ म ॥ गु०॥ गुण वंत गावे प्रेमशुं ॥ गुण ॥ गुरु वंदे वारंवार ॥ म॥ गु० ॥ ॥ अचलगलपति दीपता ॥ गुण ॥ श्री विवेकसागर सूरिराय ॥ म० ॥ गुण ॥ प्रेमचंद कहे प्रणमतां ॥ गुण ॥ श्रीसंघने कल्याण थाय ॥ म॥ गुण ॥ ए॥ इति ॥ ११७ ॥ ॥अथ अचलगछपति पूज्यनहारक श्रीविवेकसागर - सूरीश्वरनी गहूंली एकशो ने अढारमी॥ ॥श्रा थाप उठी उतावली ॥सहि मोरी रे ॥ में सांन सी मीठी वाण ॥ लागे मुने प्यारीरे॥ा आचारज गुरु आविया ॥ स ॥आ जदपुर बंदर मकार, वात सनूरी रे॥१॥था चरण करण व्रत धारता ॥ स॥ था श्रावक दीये बहु मान, पुण्य पनोतां रे ॥ या स मिति गुप्ति सूधी धरे॥स॥था पाले प्रवचन माय, पामे ठकुरी रे॥२॥ श्रा दश अर्कने दिये देशवटो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146