Book Title: Gahuli Sangrahanama Granth
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 117
________________ इम बहु घाटीयें रे, प्रजुने संगे परिवार ॥॥ सहु देवें मली रे, कीg समवसरण मंमाण ॥ बेग मन रली रे, त्रीजा गढमा त्रिजुवन जाण ॥ जश्था समीयें रे, दीधी वधाइ प्रजुनी ताम ॥ षटखंड सा मीयें रे, पूरित मनोवंडित काम ॥३॥ बहु श्राडब रें रे, आवे चक्रिसगर उत्साह ॥ जक्ति पुरस्सरें रे, वांदे प्रजुजीना पाय ।। प्रजु दीये देशना रे, नवियण ने प्रेम प्रकाश ॥ चार प्रकारने अनुसरी रे, पामो नवियण जव निस्तार ॥४॥ सखीये परवरी रे, ना में रत्न सुकेशा नार ॥ अति हरखें करी रे, पूरे मंगल श्राव उदार ॥ त्रण खमासणे रे, वांदे वधावे थर उ माल ॥ रंगजरथी सुणे रे, प्रजुनां अमृत वयण रसा ल॥५॥ इति ॥१०॥ ॥अथ गहूंली एकशो ने एकम। ॥ द्वारिका नयरी सुंदरु ॥ तारूजी॥ सहसावन श्र निराम हो । गुणवंती गहूंली करे फागमा ।। वारुजी ॥ १॥ नेम जिणंद समोसस्या ॥ ता ॥ वनपा लक दीये वधाइ हो। गुण ॥ श्रीकृष्ट अग्रमही षी अष्टशुं ॥ ता ॥ वंदन पडह वजाय हो । ॥ गुरु॥२॥ पंच अनिगम साचवी॥ ता०॥ वादे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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