Book Title: Gahuli Sangrahanama Granth
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 122
________________ (११) हेली ॥ महा ॥५॥ गहूंसी गाइ रंग रसाली, गुणि जन हृदय कमलमां वाली ॥ श्रीविजयराज सूरीश्वर राया, जे प्रणमे ते शिव सुख पाया ॥ म॥६॥इति । ॥अथ गहूली एकशो ने ही॥ ॥चालो साहेली, जंगम तीरथ वंदन करवा जश्ये, हां रे मुनि मुख निरखी, आपण सरवे साथे पावन थश्यें ॥चाणा पंच महावत तो जे नित्य पाले, समिति सम दृष्टि समजाले॥षटकायजीव नित्य प्रतिपाले, पंचेंजियः विषयने टाले॥चालोणा॥ नवविध ब्रह्म गुप्ति जे धारे, चार कषाय चोरने वारे॥वली त्रण दंडने मनशुं वारे, त्रण गुप्तिशृं आतम तारे ॥ चा०॥॥ थावर निरय तिरि गति नावे, देव मनुष्य पदवि पावे ॥ एम शुरु संयम मन नावे, ते मुनिवर मुक्ति जावे ।। चा०॥३॥ राग द्वेषने जेणे परहरिया, मुनि गुण समतारसना द रिया।। एम गुण सत्तावीशे जरिया, ते मुनिवर शिवर मणी वरिया ॥चा०॥४॥ गणधर बागल गहंसी कीजें, कुंकुम अक्षत थास नरीजें ॥ सुणी वाणी दी लडां रीजे, नरजव पामी लाहो लीजें ॥ चा० ॥५॥ छादश अंग गुणे जरिया, जिन मारग श्राराधे करि या॥ जेणें ताख्या डे आपणा परिया, संवेग सुधारस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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