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जय सुखकार ॥ मो॥ चा० ॥ १० ॥ इति ॥ ७ ॥
॥अथ गहूंखी नेवुम। ॥ ॥अजित जिणंदशु प्रीतडी । ए देशी ॥ ॥सहियर चतुर चकोरडी, गुण उरडी हो यश्ने उजमाल ॥श्रावो गुरुने नेटवा, उःख मेटवा होसुणी धर्म रसाल ॥ बलिहारी गुणवंतनी॥१॥जुमतिहो होय कोडि कल्याण ॥ बनाए आंकणी ॥ जावत ना जे जव तणी, वलि वाजे हो घरे जीत निशाण ॥ ब लि॥२॥ वलि आतमतत्त्वनी सेवना, शुन देशना हो सुणतां जे रीक॥ तेहिज तत्त्व प्राप्ति तणुं, प्रजु नांख्यु हो आगममां बीज ॥ बलि॥३॥ नमना निगमन वंदनें, गुरु विनयें हो होय लाल अपार ॥ समकित शुरु ग्रही सही, ते वेहेलो हो लहे नवज लपार ॥ बलि ॥ ४ ॥ स्वस्तिक कारण स्वस्तियुं, गुरु आगल हो रचियें मनरंग ॥ कुंकुमरोल कचोल डां, धरि ऊपर हो श्रीफल शुन चंग ॥ बलि ॥५॥ अव्य मंगलथी लावियें, जावमंगल हो दानादिक चोक । उपर साकर संपदा, सहि पामे हो शुनदृष्टि लोक ।। बलिग ॥६॥ चोक पूख्यो गति चारनो, करी
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