Book Title: Gacchachar Prakirnakam
Author(s): Yashratnavijay
Publisher: Jingun Aradhak Trust

View full book text
Previous | Next

Page 141
________________ 116 for श्रीगच्छाचारप्रकीर्णकम् // पज्जलंति जत्थ धगधगस्स गुरुणा वि चोइए सीसा | रागदोसेण वि अणुसएण, तं गोयम ! न गच्छं // 50|| प्रज्वलन्ति यत्र धगधगायमानं गुरुणाऽपि नोदिते शिष्याः / रागद्वेषेणापि अनुशयेन स गौतम ! न गच्छः // 50 // (प्र.अ.) - ‘पज्ज०' इत्यादि, प्रज्वलन्ति यत्र गच्छे चोदनाप्रतिचोदनादिभिः गुरुणा शिष्या धगधगायमानम् अनुशयेन = पश्चात्तापेन = 'कथमस्माभिः प्रव्रज्या गृहीता ? कथमस्य पार्श्वे वयं समाजग्मुः ?' इति पश्चात्तापेन प्रज्वलन्ति स हे गौतम ! न गच्छः // 50 // (द्वि.अ.) - ‘पज्ज०' इत्यादि, यत्र = गच्छे चोदनाप्रतिचोदनादिभिर्नोदिता गुरुणापि शिष्या रागद्वेषैः अनुशयेन पश्चात्तापेन वा, धगधगस्सेत्यनुकरणशब्दोऽयम्, एवं धगधगायमानाः प्रज्वलन्ति हे गौतम ! स गच्छो न भवति // 50 // गच्छो महाणुभावो, तत्थ वसंताण निज्जरा विउला | सारण-वारण-चोअण-माईहिं न दोसपडिवत्ती ||51|| गच्छो महानुभावस्तत्र वसतां निर्जरा विपुला / स्मारणावारणाचोदनादिभिर्न दोषप्रतिपत्तिः // 51 // (प्र.अ.) - 'गच्छो०' इत्यादि, गच्छः = सुविहितसाधुसमुदायरूपः, स गच्छो महानुभावो वर्त्तते / तत्र वसतां मुनीनां सारणावारणाचोदनादिभिश्च विपुला निर्जरा भवति, दोषप्रतिपत्तिर्न भवति // 51 // (द्वि.अ.) - 'गच्छो०' इत्यादि, गच्छो महानुभावो वर्त्तते, तत्र वसतां सारणावारणा-नोदनादिभिर्विपुला निर्जरा भवति, दोषप्रतिपत्तिर्न भवति // 51 // गुरुणो छंदणुवत्ती, सुविणीए जिअपरीसहे धीरे | न वि थद्धे न वि लुद्धे, न वि गारविए, विगहसीले ||52 / / 1. 'धगधगधगस्स' H-प्रते / 2. 'सीसे' C-D-E-F-G-H, अत्र A-B-आदिप्रतपाठः / 3. 'धगमगायमानम्' इति B-C-प्रते / 4. 'छंदणक्ते' C-प्रते, 'छंदणवित्ती' A-B-D-E-आदि /

Loading...

Page Navigation
1 ... 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182