Book Title: Gacchachar Prakirnakam
Author(s): Yashratnavijay
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 168
________________ 143 gen पूर्वमहर्षिप्रणीत-अवचूरिद्वयसमन्वितम् ng जत्थ जयार-मयारं, समणी जंपइ गिहत्थपच्चक्खं | पच्चक्खं संसारे, अज्जा पक्खिवइ अप्पाणं ||110|| यत्र जकारमकारं, श्रमणी जल्पति गृहस्थप्रत्यक्षम् / प्रत्यक्षं संसारे, आर्या प्रक्षिपति आत्मानम् // 110 // (प्र.अ.) - 'जत्थ य०' इत्यादि, यत्र = गच्छे हे गौतम ! श्रमणी साध्वीति कथ्यमाना, गृहे तिष्ठतीति गृहस्थास्तेषां प्रत्यक्षम् = तेषां समक्षम् गृहस्थराटिश्चकाररूपा जल्पति / सा आर्या प्रत्यक्षं निजात्मानम् = निजजीवं संसारे = भवे क्षिपति // 110 // (द्वि.अ.) - 'जत्थ०' इत्यादि, यत्र यकारमकारं श्रमणी गृहस्थप्रत्यक्षं जल्पति, हे गौतम ! साऽऽर्याऽऽत्मानं संसारे क्षिपति प्रत्यक्षम् // 110 // जत्थ य गिहत्थभासाहिं, भासए अज्जिआ सुरुठ्ठावि | तं गच्छं गुणसायर ! समणगुणविवज्जियं जाण ||111|| यत्र च गृहस्थभाषाभिः भाषते आर्या सुरुष्टाऽपि / तं गच्छं गुणसागर ! श्रमणगुणविवर्जितं जानीहि // 111 // (प्र.अ.) - 'जत्थ य०' इत्यादि, यत्र = गच्छे आर्या सुरुष्टा = क्रोधवती सती अन्यार्थी प्रति गृहस्थभाषाभिर्भाषते = जल्पते, अपि निश्चयेन गुणसागर ! = गुणसमुद्र ! तं गच्छं श्रमणगुणविवर्जितं = भ्रष्टं जानीहि // 111 // (द्वि.अ.) - 'जत्थ०' इत्यादि, सुरुष्टाऽप्यार्या यत्र गृहस्थभाषाभिः भाषते, हे गुणसागर ! तं गच्छं गुणविवर्जितं जानीहि // 111 / / गणिगोअम ! जा उचिअं, सेयं वत्थं विवज्जिउं / सेवए चित्तरुवाणि, न सा अज्जा वियाहिया ||112|| गणिन गौतम ! या उचितं श्वेतवस्त्रं विवर्ण्य / सेवते चित्ररूपाणि, न सा आर्या व्याहृता // 112 // 1. 'भासाइ भा०' D-G-प्रते /

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