Book Title: Gacchachar Prakirnakam
Author(s): Yashratnavijay
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 167
________________ 142 pon श्रीगच्छाचारप्रकीर्णकम् .. गौतम ! तत्र विहारे ब्रह्मचर्यस्य का शुद्धिः ? अपि तु न काऽपीत्यर्थः // 107|| (द्वि.अ.) - 'जत्थ०' इत्यादि, यत्र चैका क्षुल्ला एकाकी तरुणी चोपाश्रयं रक्षति, हे गौतम ! तत्र विहारे ब्रह्मचर्यस्य का शुद्धिः ? अपि तु न काऽपीत्यर्थः // 107 // जत्थ य उवस्सयाओ, बाहिं गच्छे दुहत्थमित्तंपि / एगा रत्तिं समणी, का मेरा तत्थ गच्छस्स ? ||108|| यत्र चोपाश्रयात् बहिर्गच्छेद् द्विहस्तमात्रामपि। एकाकिनी रात्रौ श्रमणी, का मर्यादा तत्र गच्छस्य ? // 108 // (प्र.अ.) - 'जत्थ य०' इत्यादि, यत्रोपाश्रयाद् बहिरेकाकिनी रात्रौ श्रमणी द्विहस्तमात्रामपि भूमिं गच्छेत्, तत्र का मर्यादा ? मर्यादारहितः स गच्छः श्रेष्ठो न हि // 108 // (द्वि.अ.) - 'जत्थ०' इत्यादि, यत्रोपाश्रयाद् बहिरेकाकिनी रात्रौ श्रमणी द्विहस्तमात्रामपि भूमिं गच्छेत्, तत्र गच्छे का मर्यादा ? // 108|| जत्थ य एगा समणी, एगो समणो य जंपए सोम ! / नियबंधुणा वि सद्धिं, तं गच्छं गच्छगुणहीणं ||109 / / यत्र च एकाकिनी श्रमणी एकाकी साधुश्च जल्पते सौम्य ! / निजबन्धुनापि सार्दू, तं गच्छं गच्छगुणहीनम् // 109 / / (प्र.अ.) - 'जत्थ य०' इत्यादि, यत्रैकाकिनी श्रमणी एकाकिना निजबन्धुसाधुनाऽपि सार्धं हे सौम्यवदनेति गुरुवाक्यं (जल्पति), तं गच्छं गच्छगुणहीनम् = गच्छगुणविमुक्तं जानीहि // 109 // (द्वि.अ.) - 'जत्थ०' इत्यादि, यत्रैकाकिनी श्रमणी एकाकिना निजबन्धुनाऽपि सार्धं जल्पति / अथवा एकाकी साधुनिजभगिन्याऽपि साधु जल्पति / हे सौम्य ! तं गच्छं गुणहीनं जानीहि // 109 // 1. 'राई' A-D-प्रते / 2. 'सोम्म' D-G-प्रते / - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -

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