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प्रतिनिधित्व की कसौटी हैं । उनकी भावपूर्ण उक्तियों पर किसका हृदय नहीं पिघलता। इसी प्रकार जगद्धर भट्ट की 'स्तुति कुसुमाञ्जलि' और पंडितराज जगन्नाथ की 'गङ्गालहरी' के संमुख किसका मरतक श्रद्धा से नहीं झुक जाता ? कहने का मतलब यह कि यहां के स्तोत्र साहित्य की विशालता का अनुमान लगा सकना भी हमारे लिए दुप्कर है। ज्ञात अज्ञात सैकडों स्तोत्र और स्तोत्रकार इस भारत भूमि मे जन्म ले चुके हैं, जिनके नाम और कृति का पता तक चला सकना कठिन ही नहीं असंभव होगया है।
हमारे निकटतम सहयोगियों में जैन और बौद्ध धर्मावलम्वियों की भी स्तोत्र साहित्य की संपत्ति कुछ कम महत्व नहीं रखती। उन्होंने भी इस क्षेत्र में पर्याप्त एवं उच्चकोटि के साहित्य का सृजन किया है- जो कि भाषा और भाव दोनों ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण तथा आदर की वस्तु है ।
पंचधारा की उपासना-वैदिक युग की समाप्ति और पौराणिक युग के प्रारभ में पंचधारा की उपासना इस देश की एक व्यापक परंपरा वन गई थी। विकाशवाद की दृष्टि से ऐसा होना स्वाभाविक था । वयोंकि निगुण ब्रह्म तक पहुँच सकना सर्वसाधारण की शक्ति और समझ से परे की बात थी। इधर आस्तिकों के हृदयों मे बौद्धिक स्तर पर होने वाली विभिन्न प्रतिक्रियाओं के समाधान स्वरूप किसी सर्वसंमत और सुलभ प्रणाली का निर्देशन भी
आवश्यक समझा जाने लगा था। उसीके फलस्वरूप पंचधारा की उपासना का प्रचलन हुआ। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि चैदिक साहित्य मे उपासना प्रणाली का कोई निर्धारित लक्ष्य या स्वरूप न था | यह स्वरूप तो वहुत पहले ही निर्धारित हो चुका था। किन्तु उस युग में वैदिक यज्ञों और इष्टियों का विशेष प्रचलन होने से इसका प्रचार सीमित रहा । उपासना के लक्ष्य और उसके महत्व की पुष्टि के लिए यहां कतिपय श्रुतियों का उल्लेख कर देना इसके स्वरूप परिचय मे सहायक ही नहीं आवश्यक होगा
'धनुहीत्वोपनिषदं महास्त्रं शरं ह्यु पासानिशितं संधयीत । आयम्य तद्भावगतेन चेतसा लक्ष्य तदेवाक्षरं सौम्य विद्धि ।' 'प्रणवो धनु. शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥'