Book Title: Durgapushpanjali
Author(s): Jinvijay, Gangadhar Dvivedi
Publisher: Rajasthan Puratattvanveshan Mandir

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Page 12
________________ हृदय को अन्यत्र समाधान मिल सकना कठिन हो नहीं असंभव है। उसके संतप्त हृदय के साथ सहानुभूति रखने का सामर्थ्य यदि कही है तो वह सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ही मे हो सकता है । वह अपने लौक्कि दुखों की कहानी उसके सिवा किसको सुनावे । जव सासारिक प्राणी प्रभु के समक्ष हृदय खोलकर अपनी करुण दशा पर क्रन्दन करने लगता है-तो निस्सन्देह प्रभु को भी उसकी दशा पर दया आजाती है । और इस प्रकार प्रभु की तन्मयता प्राप्त होने पर सहज ही वह संतापों से छुटकारा पाजाता है। ईश्वर-भक्त मानवहृदय को स्तोत्रों के द्वारा शब्द ब्रह्म की अनुभूतियों का जब प्रश्रय मिलजाता है तब उसका भावुक हृदय उसके सहारे अपने आपको सबल एवं पुष्ट अनुभव करने लगता है । क्योंकि जब जब वह अपनी पराधीनता और अपूर्णता से खिन्न किंवा विचलित हो उठता है तो उसे अपने इष्टदेव के गुणानुवाद से एक प्रकार की स्थायी सुखशांति का लाभ होता है । क्योंकि वह उसके अलौकिक सामर्थ्य और प्रभाव का हृदय से कायल होजाता है । भक्ति का अंकुर इसी प्रभु शक्ति का परिणाम है । ___ मनुष्य एक संवेदनशील प्राणी होने के नाते, जब तक वाह्यजगत् के वास्तविक रूप को सही अर्थों मे नहीं जान लेता तब तक वह अपने आपको भी नहीं पहचान पाता । यही उसकी अपूर्णता का माप दण्ड है। वह जव सृष्टि उसके नियन्ता और अपनी सीमित शक्ति पर विचार करने वैठता है तो सहसा निराश हुए विना नहीं रह सकता । क्योंकि सृष्टि का यह गोरख धन्धा प्रयत्न करने पर भी उसकी विचार शक्ति को संतुलित नहीं होने देता। अतएव गुरुजनों के मार्गदर्शन और उपदेश की आवश्यकता पड़ती है जो कि एक स्वस्थ मानव के लिए आवश्यक और अनिवार्य आवश्यकता है । वेदों और उपनिषदों मे इस प्रकार की जिज्ञासा और उसका समाधान भावपूर्ण भाषा मे प्रस्तुत किया गया है 'किं कारण ब्रह्म कुतः स्म जाता जीवाम केन क च संप्रतिष्ठाः । अधिप्ठिताः केन सुखेतरेपु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम् ।। 'काल. स्वभावो नियतिर्यहन्छा भूतानि योनि पुरुप इति चिन्त्या। संयोग एपां न त्वात्मभावादात्माप्यनीश. सुखदु खहेतो. ॥'

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