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'ते ध्यानयोगानुगत्ता अपश्यन् देवात्मशक्तिं स्वगुणैनिगूढाम् । यः कारणानि निखिलानि तानि कालात्मयुक्तान्यधितिप्ठत्येक. ।।' 'स्वभावमेके कवयो वदन्ति कालं तथान्ये परिमुह्यमाना । देवस्यैष महिमा तु लोके येनेदं भ्राम्यते ब्रह्मचक्रम् ।।' 'छन्दांसि यज्ञाः क्रतवो व्रतानि भूतं भव्यं यच्च वेदा वदन्ति । अस्मान्मायी सृजते विश्वमेतत् तस्मिंश्चॉन्यो मायया सनिरुद्ध. ॥'
'मायां तु प्रकृति विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् ।
तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगन् ।' 'यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्यामोषधय. संभवन्ति ।
यथा सतः पुरुषात्केशलोमानि तथाक्षरात्संभवतीह विश्वम् ।।' वास्तव में सृष्टि रहस्य और उससे सवन्धित आत्मवाद की यह समन्वयात्मक व्याख्या वैज्ञानिक दृष्टि से भी मूल समस्या के विवेचन के लिए काफी ठोस
और परिणामत. हृदय को स्पर्श करने वाली है। इससे अधिक इस गुत्थी को सुलझाने का कोई सुगम प्रकार दिखाई नहीं देता।
तात्पर्य यह कि अध्यात्म-मार्ग पर अवलंवित स्तोत्र-साहित्य मानवमात्र के आत्मिक-जागरण, स्फूर्ति एव प्रेरणाओं का स्रोत है। इसके रग में रगे हुए कर्मयोगियों के लिए ससार यात्रा का भार हलका पडजाता है और विभिन्न देशकाल में उपनत होने वाले कर्मफल की भुक्ति साविक जीवन में बाधक नहीं बनती। यही इसकी सफलता का निदर्शन समझा जाना चाहिए। उत्थान-पतन की भौतिक घटनाओं के प्रभाव मे न फंसना ही स्तोत्र साहित्य के महत्व का परिचायक है । यही नहीं-यदि गंभीर दृष्टि से विचार किया जाय तो यह मानना होगा कि आध्यात्मिक क्षेत्र मे भारत की प्रबल जागरूकता का श्रेय यदि किसी को दिया जासकता है तो वह हमारा स्तोत्र साहित्य है । जिसके द्वारा जनमानस की वास्तविक शुद्धि होकर उसमे सत्य की सत्ता प्रतिविम्बित होने लगती है।
सस्कृत का स्तोत्र साहित्य एक विशाल और व्यापक अनुभूतियों का भण्डार है। ऋषि मुनियों से लगाकर कवियों और प्राचार्यों तक ने इसके द्वारा अपनी २ भावनाओं को मूर्त एवं सजीव रूप दे दिया है। प्राचार्य पुष्पदन्त का 'शिव महिम्नस्तोत्र' एवं आचार्य शंकर की 'सौन्दर्यलहरी' इसके