Book Title: Divya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Author(s): Jawaharchandra Patni
Publisher: Vijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 25
________________ १० विव्य सिधारे और फिर माता इच्छाबाई भी अपने पुत्ररत्नको प्रभुशरणमें सौंप दिव्य धाम सिधारी । माता इच्छाबाईने अपने हृदयवल्लभ को अमर सुख प्राप्त करनेका अंतिम संदेश दिया था । वह संदेश धीरे धीरे अंकुरित हुआ और अन्तमें वल्लभको वह अमर धन प्राप्त हुआ । माता-पिताका सात्त्विक जीवन बालकके जीवनका सुषुप्त निर्माण करता है । छगनके बाल्यकालमें सद्जीवनके जो संस्कार आए वे माता - पिताकी अमर देन थी । बाल्यकालके उन संस्कारोंने छगनको विश्ववल्लभ बना दिया । ३ जागृति संध्या ढल रही थी। रविकी अंतिम किरणें सोना बिखेर कर चली गई । पश्चिम दिशाकी लालिमाको देख मनका मोर नाचने लगा: अहा ! कितनी सुहावनी है यह लालिमा, यह रूप-रंग ! धीरे धीरे संध्याका रूप सरिता - जल में प्रतिबिम्बित हुआ- • जैसे कोई नायिका जलदर्पणमें अपना रूप निहार रही हो । उस समय मैं अपनी वाटिकामें बैठा हुआ आदर्श जीवन का वह हृदय - द्रावक प्रसंग पढ़ रहा था जिसमें बालक छगन अपनी मरणासन्न माताकी शैयाके पास बैठा हुआ फूट फूट कर रो रहा है । सहसा मांकी आंखें खुलीं और उसने अपने लाडले पुत्रको आंसू टपकाते देखा। मांने बोलनेका प्रयत्न किया । धीमे स्वरमें वह बोली : छगन ! तू भी इतना दुर्बल ! मांकी वाणी सुनते ही बालक छगनकी आंखोंसे गंगा-यमुना बहने लगीं । बालकने दयनीय नेत्रोंसे मरणोन्मुख ममतालु माताको देखा और करुण स्वरमें बोला : माँ ! हमें किसके भरोसे छोड़ जाती हो ? "" 33 " "" मौन माताका स्वर सहसा फूट पड़ा : "बेटा, अमर सुखको प्राप्त करने में अपना जीवन बिताना । मैं तुम्हें करुणासागर परम परमात्माकी शरणमें सौंपकर इस नश्वर संसारसे विदा हो रही हूं । " माता इच्छाबाईका जीवनदीप बुझ गया । बालकके सामने अन्धकार ही अन्धकार था । आदर्श जीवनके इस कारुणिक प्रसंगको मैंने समाप्त किया १. 'आदर्श जीवन', रचयिता : श्री कृष्णलाल वर्मा, श्री फूलचन्द हरिचन्द्र । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90