Book Title: Divya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Author(s): Jawaharchandra Patni
Publisher: Vijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti

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Page 84
________________ दिव्य जीवन धर्म प्रेम सिखाता है, वैरभाव नहीं। धर्म पुष्प है, कांटा नहीं। तुम प्राणिमात्रके लिए प्रेमभाव रखो। खुदाका बंदा - ईश्वरका भक्त- वही है जो समस्त प्राणियोंको अपने समान समझे। आजादी ही जीवन है, गुलामी ही मृत्यु है। अहंकारका परम मित्र है अज्ञान । अज्ञान-अन्धकारमें भटकता हुआ मनुष्य धर्म के नाम पर लड़ता है, जातिभेद पर रक्तपात करता है। समाजमें सुगन्ध बिखेरनेके पहले अपनेमें सुगन्ध भरो। प्रत्येक प्राणो में ईश्वर विद्यमान है। शुद्धाचरणसे व्यक्ति अपने मनको प्रभुका पावन मंदिर बना ले। ___ राष्ट्रका गौरव गगनचुंबी अट्टालिकाओं एवं विशाल भवनोंसे कदापि नहीं बढ़ता; वह बढ़ता है सुशील नागरिकोंसे । समाज उद्यान है; नर-नारी पुष्प-पौधे हैं। इस समाजोद्यानके बागबान हैं साधु-संत तथा समाजके अग्रणी। यदि इसे सुजलसे नहीं सींचा गया और आवश्यकतानुसार पेड़-पौधोंकी कांट-छांट और देखभाल नहीं की गई तो उद्यान कुरूप होकर उजड़ जाएगा। _ जैसे अरुणोदय होने पर प्रकृतिमें सरस परिवर्तन हो जाता है, पुष्प खिलकर सुगन्ध बिखेरते है, ओस बिन्दु मोती बन जाते हैं, सारी वनस्पति मधुर हासमें मुस्कराने लगती है, उसी प्रकार संतजनकी तेजस्वितासे मानव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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