Book Title: Divya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Author(s): Jawaharchandra Patni
Publisher: Vijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 87
________________ ७२ दिव्य जीवन मानवता अखंड है, उसमें भेदभाव नहीं, ऊंच-नीच, धनवान-गरीब, तथा काले-गोरेका भेद दृष्टिकोणके कारण है। जैसे यंत्रवादके युगमें चाहे प्रकाश करना है, चाहे पंखा चलाना है, चाहे टेलीफोनसे बात करना है या किसी भी प्रकारकी मशीनको चलाना है, तो बिजलीका प्रयोग करना आवश्यक समझा जाता है, वैसे ही चाहे सामाजिक अथवा धार्मिक प्रगति साधना है तो शिक्षाके बिना कुछ भी नहीं हो सकता। शिक्षाका वास्तविक उद्देश्य है मनुष्यको पशु अवस्थासे मनुष्य अवस्थामें लाना और उसे सच्चा मनुष्य बनाना। आज आधुनिक शिक्षासे लोग घबराते हैं और कहते हैं कि शिक्षासे संस्कृतिका नाश होता है। परन्तु मैं तो उसको वैसी ही भ्रांति मानता हूं जैसे कि बिजली जला देती है इसलिये बिजलीके उपयोगसे दूर रहना चाहिये। इस तरहसे यंत्रवादी घबराये होते तो सारे संसारमें यंत्रवादका साम्राज्य स्थापित नहीं कर पाते। जिस कालमें जिस प्रकारकी शिक्षा प्रचलित हो, उसको प्राप्त किए बिना हम अपना हित साध ही नहीं सकते। मूर्तिकार अनगढ़ कुरूप पत्थरको अपनी कलासे मूर्तिका रूप प्रदान करता है। कलाकारकी छेनीकी करामात देखिये -- जो अनगढ़ पत्थर किसीको आकर्षित नहीं कर पाता था, सुन्दर मूर्ति बनकर वह मन में बस जाता है, आंखोंमें रम जाता है। शिक्षा भी अद्वितीय कला है। इससे बालकरूपी अनगढ़ पत्थर मानवताकी मूर्ति बनकर सबकी आंखोंमें रम जाता है। आत्मजागृति होने पर जीवात्माका उद्धार होने लगता है। वह प्रेममतिको पानेके लिये भक्तिका अवलम्ब लेती है। भक्तिभाव आने पर संसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 85 86 87 88 89 90