Book Title: Divya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Author(s): Jawaharchandra Patni
Publisher: Vijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti

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Page 85
________________ दिव्य जीवन मनमें अरुणोदय हो जाता है । उसमें मनुष्यताका प्रकाश छिटकने लगता है मनुष्यता से ही मनुष्य, मनुष्य कहलानेका अधिकारी बनता है । ७० ० रसना - स्वाद के लिए मनुष्य जीवोंकी हत्या करता है । सुनिये, उस आर्तनादको जिसे मूक पशु, पक्षी, जलचर तथा अन्य प्राणी मृत्युके भयके कारण करते हैं। हिंसा दुःखकी जननी है । शिक्षाका उद्देश्य चरित्रका निर्माण करना है । शिक्षासे विद्यार्थी शुद्ध एवं आदर्श जीवनवाला बने । उसमें मानवता, करुणा और प्राणिमात्र के लिये मैत्रीभावना हो । ऐसे विद्यार्थी ही समाजके हीरे होते हैं । हीरोंकी कीमत उनकी चमकके कारण होती है, मनुष्यकी कीमत उसके चरित्रके कारण होती है । हमारा धर्मं समस्त जीवों पर दया करना है । जब हम छोटे छोटे प्राणियों पर दया करते हैं तब मनुष्य पर दया करना तो हमारा सर्वप्रथम कर्त्तव्य हो जाता है । प्राणिमात्रके लिए प्रेम रखो। यही अमर सुखकी सीढ़ी है। हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, जैन, आर्यसमाजी आदि भारतकी संतान हैं। सबको एक विशाल कुटुम्बके समान समझना और उनकी सेवा करना यही प्रत्येक भारतवासीका धर्म है । सेवा ही आज की सच्ची पूजा, सच्ची नमाज और सच्ची गुरुवाणी है । Jain Education International ० आज लक्ष्मीके भंडार भरपूर हैं, परन्तु दुखियोंके प्रति पीड़ा ही नहीं है फिर धर्म रही ? जीवन खोखला बन गया है, केवल कंकाल मात्र । O कहां है वह पीड़ा ? जब कहां रहां ? मानवता कहां For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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