Book Title: Divya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Author(s): Jawaharchandra Patni
Publisher: Vijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti

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Page 83
________________ ६८ दिव्य जी ५. एकता--गुरुदेवने एकता पर विशेष जोर दिया। 'एकता विहीन समाज टूटी हुई वीणाके समान है, जिस पर कोई गीत नहीं गूंजता।' जीवन बेसूरा हो जाता है एकताके बिना । एकताकी भावनाके बिना संगठन असंभव है। जहां स्वार्थका बोलबाला हो, जहां मनुष्य अपनी सुविधाओं और समृद्धिके लिए दिनरात मशीनकी तरह काममें लगा हुआ है, वहां पर मनुष्य समाजके लिए क्या सोचेगा? गुरुदेवने इसीलिए कहा था : हे माग्यशालियों! आप सुखी हैं, आपके पास नौकर-चाकर हैं, कारे हैं और बंगले हैं, परन्तु यह याद रखना कि ये सब यहां ही रह जायंगे। समाजके लिए कुछ सोचो। भूखों और पीड़ितोंके दर्दको सुनो, दुःखियोंके आर्तनादको सुनो।" इन शब्दोंमें गुरुदेवकी पीड़ा बोल रही है। वे एकताके लिए, संगठनके लिए सदा उपदेश देते थे। एकताकी भावना आने पर ऊंच और नीचका भेद नहीं रहता, धनवान और गरीबका भेदभाव नहीं रहता, यह गुरुदेवने बताया। एकताकी भावना जब तक नहीं आती तब तक धर्मकी डींग हांकना व्यर्थ है। धर्म समभाव सिखाता है। समभाव एकताकी वेल पर खिला हुआ सुन्दर फूल है। १७ वल्लभ-वाणी [आचार्यदेवके प्रवचनों एवं ग्रंथोंसे चुने हुए सारवाक्य] मानवजीवनका प्रकाश है मानवता। मैं न जैन हूं, न बौद्ध; न वैष्णव हूं, न शैव; न हिन्दू हूं, न मसलमान । मैं तो वीतरागदेव परमात्माको खोजनेके मार्ग पर चलनेवाला मानव हूं, यात्री हूं।" शद्धाचरण द्वारा जीवनको मंदिरके समान पवित्र बनाओ। पावन मंदिरमें ही करुणामूर्ति आनन्दधन प्रभु बिराजमान होंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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