Book Title: Divya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Author(s): Jawaharchandra Patni
Publisher: Vijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti

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Page 81
________________ दिव्य जीवन कर्तव्य है। सोने-चांदीके आभूषणोंके चुराये जाने, लूटे जाने और लड़ाईझगड़े एवं ईर्ष्याका बहुत ही खतरा है। और फिर जिस शरीरको शृंगारित करने के लिए ये गहने बनाये जाते हैं, वह शरीर तो एक दिन नष्ट होकर मिट्टीमें मिल जाने वाला है।" गुरुदेवने शील, संयम और आत्मशुद्धि द्वारा मनको प्रभुका पावन मंदिर बनानेके लिए उपदेश दिया। गुरुदेवने बताया कि जब तक मनमें मैल भरा हुआ है तबतक कोई भी दूसरोंको उपदेश या शिक्षा देनेका अधिकारी नहीं है। आत्मशुद्धि या शीलको गुरुदेवने उज्ज्वल जीवनभवनकी नींव कहा। २. शिक्षा --- गुरुदेवके पंचामृतका दूसरा रस है शिक्षा । शिक्षासे मनकी आंखें खुलती हैं। प्रकाशपथ पर चलनेके लिये शिक्षारूपी ट्यूबलाइटकी रोशनी अत्यन्त ही उपयोगी होती है। फिर इधरउधर भटकनेकी संभावना नहीं रहती। शिक्षासे व्यक्ति चमकता है, समाज चमकता है और विश्व चमकता है। गुरुदेवकी दृष्टि वैज्ञानिक थी। वे आधुनिक शिक्षाको समाजोत्थानके लिए उपयोगी मानते थे, परन्तु इसके साथ साथ उन्होंने मानवीय मूल्योंको पुष्पित एवं पल्लवित करनेके लिए नैतिक या धार्मिक शिक्षाको नितान्त उपयोगी माना। और धार्मिक शिक्षाको, (क्षणभंगुर) भौतिक सुखकी ज्वालामें जलनेवालोंके लिए, शीतल जलधाराके समान कहा। व्यावहारिक शिक्षाकी उपादेयता पर बोलते हुए गुरुदेवने ठीक ही कहा था : “व्यावहारिक शिक्षासे जीवनोपार्जनके मार्ग खुल जाते हैं। बिना इसके समाज पिछड़ेपनके दलदलमें फंस कर लड़खड़ाकर गिर पड़ेगा। शिक्षा बालकको संस्कारी तथा स्वावलम्बी बनावें।" गुरुदेवने इन सिद्धान्तों पर केवल उपदेश ही नहीं दिया वरन् अनेक शिक्षण संस्थाएं खुलवाकर अपने कर्तव्यका पालन किया। ३. सेवा--सेवाको दुग्धधारासे मानवमन पुष्ट बनता है। करुणाकी दुग्धधारा सेवारूपी कामधेनु को दुहनेसे ही प्राप्त होती है। सेवा दो प्रकारकी है : गुरुदेवने कहा : “एक सेवा है प्रभुसेवा, दूसरी, समाजसेवा । सेवासे मनुष्यमें प्रेम उत्पन्न होता है। प्रेम प्रभुका प्रकाश है।" गुरुदेवने एकान्त साधनामें लीन रहनेवाले महात्माओंको समाजसेवाके मार्ग पर चलने के लिए कहा, क्योंकि समाज प्रकाश चाहता है, अंधकारको मिटाने के लिए अनेक दीपोंकी आवश्यकता है। साधु-संतोंका जीवन दीप तुल्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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