Book Title: Divya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Author(s): Jawaharchandra Patni
Publisher: Vijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti

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Page 57
________________ ४२ दिव्य जीवन कीमती रत्न ( बालक एवं बालिकायें ) धनाभाव के कारण शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते। शिक्षाके बिना राष्ट्र एवं समाजके ये बहुमूल्य हीरे धूलमें ही छिपे रह जाते हैं। उनकी चमक-दमक भूगर्भके अन्धकारमें छिपी रह जाती है । कैसी विडम्बना है ? गुरुदेवकी आत्मा तड़प उठी । गुरुदेवने सदा विश्वमानवको सामने रखा। मानवता अखंड है, उसमें भेदभाव नहीं, ऊंच-नीच, धनवान - गरीब तथा काले-गोरेका भेद दृष्टिकोणके कारण है । गुरुदेवने अपने को करुणासागर आनन्दधन सच्चिदानन्द वीतराग प्रभुके मार्ग पर चलनेवाला यात्री कहा। वे मनुष्यको मनुष्यता बतानेके लिये सतत प्रयत्नशील रहे । शिक्षाके बिना मनुष्य मनुष्यताको कैसे पहचानेगा ? - गुरुदेवने सोचा । शिक्षा समाजरूपी शरीरका टानिक है। इससे समाज पुष्ट एवं विकासोन्मुख बनता है । शिक्षाके संबंध में ये उनके विचार कितने स्पष्ट एवं तथ्यपूर्ण हैं : cc 'जैसे यंत्रवादके युगमें चाहे प्रकाश करना है, चाहे पंखा चलाना है, चाहे टेलीफोनसे बात करना है या किसी भी प्रकारकी मशीनको चलाना है तो बिजलीका प्रयोग करना आवश्यक समझा जाता है, वैसे ही चाहे सामाजिक, व्यावहारिक अथवा धार्मिक प्रगति साधना है तो शिक्षाके बिना कुछ भी नहीं हो सकता । 11 2 गुरुदेवने शिक्षाका उद्देश्य समझाते हुए विद्यार्थियोंको कहा था : “ शिक्षाका वास्तविक उद्देश्य है मनुष्यको पशु अवस्थासे मनुष्य अवस्थामें लाना और उसे सच्चा मनुष्य बनाना ।' 33 शिक्षासे मनुष्यता प्रस्फुटित होनी चाहिये । इसीलिए उन्होंने व्यावहारिक शिक्षाके साथ धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा पर जोर दिया। आज भी बड़े बड़े शिक्षाशास्त्री एवं दार्शनिक यह कहते हैं कि आधुनिक शिक्षामें नैतिक अथवा धार्मिक शिक्षा न होनेसे अनुशासनहीनता, स्वार्थपरायणता एवं भौतिकवादके प्रति प्रेम पनप रहा है। मनुष्य आत्मप्रकाश व मानवताको भूल बैठा है। समाज में स्वार्थभावनाके विकासके साथ साथ हिंसा बढ़ रही है । नैतिक अथवा धार्मिक शिक्षासे विनय और सदाचारके संस्कार विकसित होते हैं । इन संस्कारोंसे व्यक्ति में मानवता आ जाती है । मानवतामें दया, ३. आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ, 'पंजाबकेसरीका पंचामृत ' निबंध, लेखक श्री श्रीऋषभदासजी जैन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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