Book Title: Divya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Author(s): Jawaharchandra Patni
Publisher: Vijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti

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Page 75
________________ दिव्य जीवन कहा : “गुरुदेव, आज मेरा भाग्य खुल गया है। गोचरी (भिक्षा) लेकर मुझे कृतार्थ कीजिये।" माताजीने गुरुदेवको विनती की ही थी कि समीपके घरसे पुत्र भी गुरुदेवको भिक्षाके लिये विनती करने आ पहुंचा। उसने गुरुदेवको पुलकित होकर कहा : “पूज्य गुरुदेव! आज मुझे भी कृतार्थ कीजिये। यह घर तो मेरी माताजीका है, मैं पासके घरमें रहता हूं। कृपालु, पधारनेकी कृपा कीजिये।" माता-पुत्र दोनोंकी विनतीमें आग्रह और भक्ति थी। गुरुदेवने कहा : “ मुझे तुम दोनोंसे एक वस्तु लेनी है, जिसकी मुझे आवश्यकता है।" दोनोंने गुरुदेवके प्रति भक्ति प्रदर्शित करते हुए कहा : "आप जो चाहेंगे, वह हम भेंट करेंगे। आपके दर्शनसे हमारा जीवन धन्य हो गया है, हमारी कुटिया पवित्र हो गई है। गुरुदेव, फरमाइये।" ___गुरुदेव माता और पुत्रकी मनोदशाको परख गये थे। वाणीका अमृत पिलाकर उनके मनका मैल दूर करने में वे प्रवीण थे, बोले : “तुम्हारी भक्तिभावना श्रेष्ठ है, परन्तु मैं तभी तुमसे इच्छित वस्तुकी भिक्षा मांगूंगा जब कि तुम गुरुआज्ञा माननेका वचन दोगे।" दोनोंने कहा : “गुरुदेव, आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, आप जो आदेश देंगे, उसका हम पालन करेंगे।" उस समयका दृश्य अत्यन्त ही आकर्षक एवं सजीव था। माता-पुत्र दोनों गुरुदेवकी ओर आशाभरी आंखोंसे देख रहे थे और गुरुदेव उनके अन्तर्प्रदेशमें झांक रहे थे कि उनमें कितनी भक्ति और कितनी मनुष्यता है ? गुरुदेवने फिर पूछा : “आप लोग सच कह रहे हैं ? आज्ञा मानोगे? मेरी मनोकामना पूर्ण करोगे?" इन शब्दोंने उन दोनोंके हृदयको झकझोर कर दिया : एक नवीन प्रकाश उनमें चमक उठा। दोनोंने पुनः कहा : “गुरुदेव, हम आपके चरणसेवक है, आपकी आज्ञा मान्य है, फरमाइये।" गुरुदेवने उपदेश दिया : “आप लोग भगवान महावीरके उपासक हों, जिन्होंने प्रेमका सन्देश दिया था। आपका खानदान कितना अच्छा है, जिसमें सदा दान और त्यागका महत्त्व रहा है। फिर मुझे यह जानकर आश्चर्य हो रहा है कि माता-पुत्रके बीच वैमनस्य है, अलगाव है। क्या पुत्र माताके मधुर संबंधको भूल गया है ? और क्या माताने पुत्र-स्नेहको त्याग दिया है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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