Book Title: Divya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Author(s): Jawaharchandra Patni
Publisher: Vijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 74
________________ दिव्य जीवन ५९ मतको कलंकित करता है। तनका नूर ( कांति) समाप्त हो जाता है, मन भी काला बन जाता है । फिर काला मन भगवान या अल्लाहका पावन मंदिर कैसे बन सकता है ? यह मन तो ईश्वरका पावन मंदिर है । फिर राष्ट्रकी अपार हानिकी ओर निगाह डालिये । शराब, बिडी, सिगरेट आदि पर कितना धन नष्ट होता है ! इस धनसे कितने विद्यालय खोले जा सकते हैं, कितने अस्पताल बन सकते हैं तथा कितने उद्योग खुल सकते हैं ? मांसभक्षण तथा शिकार आदिसे हिंसाकी प्रवृत्ति बढ़ती है । इससे बात बात में खून हो जाते हैं तथा राष्ट्र में कलहको बढ़ावा मिलता है । राष्ट्र राष्ट्रके बीच संघर्षो में भी यही हिंसाकी प्रवृत्ति है । अतः प्राणिमात्रके लिये प्रम भाव रखो। " गुरुदेव के भाषण से नारोवालके कप्तान करतारसिंहने गद्गद् होकर कहा : " आचार्यजी ! कृपा करके आप यहां पधारे इसके लिये हम अपनेको भाग्यशाली मानते हैं । मैंने सैकड़ों व्याख्यान सुने हैं, परन्तु ऐसा सुन्दर और तत्त्वयुक्त भाषण तो मैंने आज तक नहीं सुना । मेरे हृदय के अन्तरतममें गुरुदेव - की वाणीका अमृत प्रवाहित हो रहा है । मेरा रोम रोम खुल गया है । " सरदार करतारसिंहजी अपने उद्गार प्रकट करके बैठे ही थे कि वृद्ध मौलवी साहब गुरुदेव के पास पहुंचे और उनके हाथोंको चूम लिया । उन्होंने कहा : सच्चा खुदाका बन्दा आज मिला है। यह फकीर सचमुच औलिया हैं । " ऐसे दिव्य संत थे आचार्यश्री | "1 एकताकी भिक्षा -- संवत् १९८८में गुरुदेव बुरहानपुर पधारे। गुरुदेवके एकता एवं प्रेमके उपदेशसे समाजमें चेतना आई और आनन्दोल्लास छा गया। क्यों न हो? महात्माजीकी चरणधूलके प्रभावसे क्या नहीं हो सकता ? फिर गुरुदेव जहां भी जाते थे, वहां करुणाकी गंगाधारा प्रवाहित हो जाती थी, प्रेमका प्रकाश छिटक जाता था। वहां उन्हें किसीने कहा कि यहां माता-पुत्र के बीच कुसम्प है । वे एकदूसरेसे बोलते तक नहीं और मन-मुटाव - के कारण अलग अलग रहते हैं । गुरुदेव तो प्रेमके पुजारी थे । वे व्यक्तिके दुःखको मिटाकर उसमें प्रेमका प्रकाश जगानेके लिये सदा प्रयत्नशील रहते थे। अतः उन्होंने कहा : मैं माता-पुत्र के बीच प्रेम स्थापित करनेका प्रयत्न " करूंगा । " दूसरे दिन प्रातःकाल एक मुनिके साथ गुरुदेव माताजीके घरमें पहुंचे । उसे धर्मलाभ ( आशीर्वाद ) दिया। माताजीने गुरुदेवको देखकर गद्गद् होकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90