Book Title: Divya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Author(s): Jawaharchandra Patni
Publisher: Vijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti

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Page 55
________________ दिव्य जीवन गुरुदेवने समाजोत्कर्षके लिये पैसाफंड योजना बनाई थी। इस योजनाके अनुसार प्रत्येक परिवारको एक पैसाउत्कर्ष फंडमें देना चाहिये। इसका उद्देश्य है साधारण जनतामें समाजसेवाके प्रति रुचि उत्पन्न करना और बिना किसी भारके समाजोत्थानके लिये धन एकत्रित करना। गुरुदेवकी समाजसेवाके दो कार्यक्रम थे : एक था विध्वंसात्मक, दूसरा रचनात्मक । विध्वंसात्मक कार्यक्रममें वे समाजकी कुरीतियां पर कटु प्रहार करते थे। समाजरूपी शरीरके सड़ेगले अंशोंका शल्यकरण आवश्यक था। एक अवसर पर गुरुदेवने कहा था : “आज तो वरविक्रयका रोग लगा हुआ है। यह रोग इतना चेपी है कि समाज इस भयंकर टी० बी०के रोगके कारण मृतप्राय बन रहा है। जहां देखो वहां लड़कोंका नीलाम हो रहा है। लड़कीवालोंसे बड़ी बड़ी रकमें तिलक-बींटीके रूपमें मांगी जाती है, सोना या सोनेके जेवर मांगे जाते हैं, घड़ी, रेडियो, सोफासेट, स्कूटर या अन्य फर्नीचरकी मांग तो मामूली बात है, विदेश जाने और पढ़ाईका खर्च तक मांगा जाता है। इस प्रकार पराये और बिना मेहनतके धन पर गुलछर्रे उड़ाये जाते हैं। युवकोंके लिये तो यह बेहद शर्मकी बात है।" इस प्रकार गुरुदेवके समाजोत्थानविषयक व्याख्यानोंसे समाजसुधारकी भावना विकसित हुई। गुरुदेवके रचनात्मक कार्यक्रममें शिक्षाका प्रचार, मध्यम एवं गरीब वर्गके लिये उत्कर्षफंडकी योजनायें, साहित्यप्रकाशन, अकाल-बाढ़पीड़ितोंकी सहायता, संकटग्रस्तोंकी सेवा, विधवाओं, अनाश्रितों या असहायोंकी सहायता आदिका समावेश होता है। ___ गुरुदेवने क्रान्तिका संदेश दिया। समाज भाग्यवाद, जड़वाद एवं रुढ़िवादमें फंसा हुआ था। समाजरूपी गजराज निराशाके कीचड़में फंसा हुआ आलस्य रूपी ग्राहके मुखमें छटपटा रहा था। गुरु वल्लभकी समाजसेवा हमें गजराज-उद्धारकी कथाका स्मरण कराती है। गुरुदेवके पुरुषार्थसे जनतामें चेतना आई, समाजने नव जागरणमें अंगडाई ली और पीड़ित' तथा दलित जनताने आशाके सुनहले प्रकाशमें आंखें खोली। समाजमें जो नैराश्यका अन्धकार फैल गया था, जो कर्मवीरता मूछित हो गई थी, उसे गुरुवल्लभने समाजसेवाकी औषधि पिलाकर प्राणवान बना दिया। समाजसेवाकी भावना जनमानसमें विकसित होकर क्रीडा करने लगी। ___३. वल्लभप्रवचन, भाग २,. 'समाजोद्धारके मूल मंत्र' निबन्धसे उद्धृत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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