Book Title: Divya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Author(s): Jawaharchandra Patni
Publisher: Vijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 37
________________ २२ दिव्य जीवन दिल्लीमें स्वर्गवास हो गया। उस समय उन्हें ऐसा लगा कि उनकी शीतल छाया अदृश्य हो गई हो। मुनि वल्लभ कृपालु गुरुदेव श्रीमद् आत्मारामजीके मार्गदर्शन में निष्कंटक आगे बढ़ रहे थे। खैवनहार उनकी जीवननैयाको बड़ी कुशलतासे देख रहा था। चारों ओर कोमल एवं शीतल चांदनी फैली हुई थी। आकाशमें चन्द्र अमृत वर्णन कर रहा था। सागरकी लहरों पर मंथर गतिसे जीवननौका जा रही थी, कि संवत १९५३ (गुजराती १९५२) जेठ सुदी सप्तमी, मंगलवारकी रातको गुजरांवालामें भयंकर अंधकार छा गया। अर्ध रात्रिके समय गुरु देव आत्मारामजी अपने शयनसे उठे और पद्मासनमें बैठ गये। उन्होंने अपने शिष्योंको अपने पास बुलाया और इन शब्दोंके साथ अंतिम विदा ली : “लो भाई, अब हम चलते हैं, अर्हन् ।" इतना कहते ही गुरुदेवका प्राणहंस उड गया। उस समय ऐसा लगा जैसे जगत्का चन्द्र ही अस्त हो गया हो। वल्लभके सामने अंधकार ही अंधकार था। परन्तु वल्लभके मानसलोकमें वह चन्द्र शाश्वत प्रकाश फैला रहा था। वह प्रकाश कभी नहीं मिटा। वह प्रकाश अमर था, निर्मल था, शीतल था। ___ मुनि वल्लभने अपने ज्ञानसे अच्छी तरह समझ लिया था कि मनुष्यकी सबसे बड़ी दुर्बलता है अज्ञान । इसी अज्ञानके कारण वह अहंकारसे ग्रसित रहता है, अहंकारसे वह अपने भीतर ऐसा अंधकार फैला देता है कि फिर उसे कुछ नहीं दीखता। अन्तर्प्रकाश अंधकारकी राखमें छिप जाता है। अन्तर्प्रकाशसे जीवन चमकता है। जैसे मोतीमें चमक होती है वैसा ही मनुष्यमें मानवताकी चमक होती है। कोमलता, दया, सदाशयता, त्याग, समभाव मानवताकी चमकसे चमकते है। यह चमक है अन्तप्रकाश । इसीको कहते हैं आत्मप्रकाश। अज्ञान-अंधकारमें भटकता हुआ मनुष्य धर्मके नाम पर लडता है, जातिभेद पर रक्तपात करता है, काले-गोरेके रंग-भेदमें उलझता है। पूज्य गुरुदेव आत्मारामजी महाराजने अपने एक लेख 'जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर' में लिखा है : “यह महापाप है कि एक व्यक्ति अपनेको दूसरेसे ऊंचा समझे। ऊंच और नीच जातिवाली भावना अनैतिक है, और विकृत बुद्धिकी परिचायक है। सभी मनुष्य समान है।" मुनि वल्लभविजयजीके हृदयोद्यानमें ये मानवीय भाव पुष्पोंके समान प्रस्फुटित हो गये । इन पुष्पोंकी सुगन्ध समाजमें फैली। पूज्य वल्लभने कहा था : “समाजमें सुगन्ध बिखरनेके पिहले अपने में सुगन्ध भरो।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90