Book Title: Divya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Author(s): Jawaharchandra Patni
Publisher: Vijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 32
________________ १७ दिव्य जीवन चांद लगा दे। उसे दुकानके कामकाजमें लगाया, परन्तु सब बेकार था। छगन संसारनाटकको अच्छी तरह समझ गया था। उसे यह पता था कि इस नाटकका अंतिम दृश्य दुःखान्त है। खीमचन्दभाईने अपने प्यारे अनुज पर कड़ी निगरानी रखी, परन्तु एक दिन छगनके स्कूलकी छुट्टी थी। वह दुकानकी कहकर जंगलके मार्गसे नगरके निकटके स्टेशन पर पहुंचनेके लिए चुपकेसे चल पड़ा। ग्रीष्म ऋतु थी। धरती तप्त तवेकी तरह तपी हुई थी। प्यासके मारे छगनजीका कंठ सूखा जा रहा था, परन्तु कोई चिन्ता नहीं। चातक जैसे स्वाति नक्षत्रकी मेघबूंदोंके लिये तरसता है, छगन अपने दिव्य गुरुदेव आत्मारामजीके दर्शनके लिये व्याकुल था। वह संध्या समय अहमदाबाद पहुंचा। संध्याका चित्ताकर्षक समय था। अहमदाबाद नगरीकी चहलपहल मनको लुभानेवाली थी। परन्तु छगनका मनमधुकर गुरुदेवके चरणकमलका मकरंदपान करनेके लिये आतुर था। मेरे मनकुं जप न परत है बिनु तेरे मुख दीठडे, प्रेमपीयाला पीवत पीवत, लालन सब दिन नीठडे । - श्री आनन्दघनजी महाराजके इस गीतमें छगनके मनका चित्र उतर आया है। उसने नगरीकी चमकदमक देखी तक नहीं। उसे दीख रहे थे गुरुदेवके चरणकमल । गुरुदेवने दूरसे अपने लाडलेको देखकर कहा : "लो भाई ! छगन आ गया। वैराग्यरंगमें रंग गया है।" छगन गुरुके दर्शनसे इतना प्रसन्न हुआ, मानो अंधेको आंखें मिल गई हो। हर्ष उसके हृदयमें नहीं समा रहा था। किन्तु दूसरे दिन छगन क्या देखता है कि बड़े भाई खीमचन्द उसके सामने हैं। छगनके मुख पर उदासी छा गई। खीमचन्दभाईने चतुराईसे काम लिया। वे गुरुदेवसे बोले : “छगन दीक्षा ले यह प्रसन्नताकी बात है, परन्तु इसकी अवस्था बहुत छोटी है, अतः जब योग्य हो जाय तभी दीक्षा दें।" खीमचन्दभाईने भांप लिया कि छगनको मोड़ना अब कठिन है। उसको तीव्र इच्छाको देखते हुए खीमचन्दभाईने उसे उस समय गुरुदेवके पास ही रखा। बादमें वह बडौदा भी गया, परन्तु सब फीका फीका लग रहा था उसे । खीमचन्दभाई, हीराचन्दभाई तथा बहन श्रीमती जमुनाबाई एवं परिवारके अन्य सदस्योंन छगनको बहुतः समझाया-बुझाया, परन्तु 'सूरदास, यह काली कामरी, चढ़त न दूजो रंग'वाली बात छगन पर खरी उतरती है। दि.-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90