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धर्म और दर्शन
ज्ञानावरण कर्म की पाँच उत्तर प्रकृतियाँ हैं - (१) मतिज्ञानावरण (२) श्रुतज्ञानावरण ( ३ ) अवधि ज्ञानावरण ज्ञानावरण (५) केवल ज्ञानावरण । १०४
(४) मनःपर्याय
मतिज्ञानावरण कर्म इन्द्रियों व मन से होने वाले ज्ञान का निरोध करता है । श्रुतज्ञानावरण कर्म शब्द और अर्थ की पर्यालोचना से होने वाले ज्ञान को प्राच्छादित करता है । अवधिज्ञानावरण कर्म इन्द्रिय और मन की सहायता के विना होने वाले रूपी पदार्थों के मर्यादित प्रत्यक्ष ज्ञान को अवरुद्ध करता है । मनः पर्यायज्ञानावरण कर्म इन्द्रिय तथा मन की सहायता के बिना संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जानने वाले ज्ञान को ग्राच्छादित करता है । केवल ज्ञानावरण कर्म, सर्व द्रव्यों और पर्यायों को युगपत् प्रत्यक्ष जानने वाले ज्ञान को प्रावृत करता है ।
ज्ञानावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ सर्व घाती और देश घाती रूप से दो प्रकार की हैं । १०५ जो प्रकृति स्वघात्य ज्ञान गुण का पूर्णतया घात करे वह सर्वघाती है और जो स्वघात्य ज्ञान गुण का आंशिक रूप से घात करे वह देशघाती है । मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनः पर्याय ज्ञानावरण ये चार
(ग) सरउग्गयस सिनिम्मलयरस्स जीवस्स छायरणं जमिहं । णाणावरणं कम्मं पडोवमं होइ एवं तु ॥ - स्थानांग, २।४।१०५ टीका में उद्धृत
१०४. नाणावरणं पंचविहं, सुयं आभिणिबोहियं । ओहिनाणं च तइयं मणनाणं च केवलं ।
( ख )
प्रज्ञापना २३|२
(ग) स्थानाङ्ग ५।४६४ (घ) तत्त्वार्थ० ८।६–७
- उत्तराध्ययन० ३३।४
१०५. णाणावरणिज्जे कम्मे दुविहे पं० तं० – देसनाणावर णिज्जे चेव
सव्वणाणावर णिज्जे चेव ।
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- स्थानाङ्ग सूत्र २०४।१०५
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