Book Title: Dharm aur Darshan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 225
________________ २१० धर्म और दर्शन (१०) कृतदान–पूर्वकृत उपकार से उऋण होने के लिए देना ।५९ . इन दानों में कौनसा दान हेय, ज्ञेय, और उपादेय है, यह तो पाठक स्वयं समझ सकते हैं। स्थानाङ्ग की तरह अंगुत्तर निकाय में भी दान के इसी प्रकार के पाठ भेद बताये हैं । धर्मदान में भी देय वस्तु की दृष्टि से तीन, चार, पाठ, दश, और चौदह भेद किये गए हैं। तत्त्वार्थ भाष्य में स्सष्ट निर्देश है कि देय वस्तु न्यायोपार्जित और कल्पनीय होनी चाहिए। जो न्यायोपार्जित और कल्पनीय है, वही अन्नपान आदि द्रव्य देय है ।६० अन्यत्र भाष्यकार ने यह भी लिखा है कि अन्न आदि सारजातीय और गुणों का उत्कर्ष करने वाले हों।६२ आचार्य अमितगति ने लिखा है कि वही देय वस्तु प्रशस्त हैं जिससे राग का नाश होता है, धर्म की वृद्धि होती है, संयम साधना को पोषण मिलता है, विवेक जागृत होता है, आत्मा उपशान्त होता है। वस्त्र, पात्र, और आश्रयादि भी रत्नत्रय की वृद्धि के लिए देना श्रेयस्कर है।६४ ५९. शतशः कृतोपकारो, दत्त च सहस्रशो ममानेन । अहमपि ददामि, किंचित्प्रत्युपकाराय तद्दानम् ॥ -स्थानाङ्ग १० । उ० ३, सू० ७४५ ६०. अंगुत्तर निकाय ८।३१॥३२ ६१. न्यायागतानां कल्पनीयानामन्नपानादीनां द्रव्याणां........दानं ।। -तत्त्वार्थ सूत्र ७।१६ भाष्य ६२. द्रव्यविशेषोऽन्नादीनामेव सारजातिगुणोत्कर्षयोगः । -तत्त्वार्थ सूत्र ७।३४ का भाष्य ६३. अमितिगति श्रावकाचार, परिच्छेद ६।४६ से ८० वस्त्रपात्राश्रयादीनि, पराण्यपि यथोचितम् । दातव्यानि विधानेन, रत्नत्रितयवृद्धये ॥ -अमितिगतिश्रावकाचार, परिच्छेद ६ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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