Book Title: Dharm aur Darshan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 237
________________ २२२ धर्म और दर्शन हिंसा का अनुमोदन करता है वह वैर की वृद्धि करता है । अतः प्रारणीमात्र को प्रात्मतुल्य समझो।" उन्होंने हिंसात्मक यज्ञों के स्थान पर अहिंसात्मक आत्म-यज्ञ का निरूपण किया।" __ अहिंसा का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए भगवान् ने स्पष्ट शब्दों में कहा-इस विराट् विश्व में अहिंसा ही भगवती है।१२ वह भय-भीतों के लिए शरण है, पक्षियों के लिए पांख है, पिपासुत्रों के लिए पानी है, भूखों के लिए अन्न है, समुद्र यात्रियों के लिए पोत है, चतुष्पदों के लिए प्राश्रम-स्थल है, रोगियों के लिए औषध है, वन यात्रियों के लिए साथ (काफिला) है, अहिंसा सभी के लिए कल्याणकारी है।'3 अहिंसा उत्कृष्ट मंगल है ।१४ श्रमणधर्म और श्रावकधर्म की ९. सयंऽतिवायए पाणे, अदुवन्नेहि घायए । हणन्तं वाणुजाणाइ, वरं वढा अप्पणो । --सूत्रकृतांग १११११-३ १०. अत्तसमे मनिज्ज छप्पिकाये । -दशवकालिक १०-५ (ख) आयतुले पयासु । --सूत्र कृतांग १।१०१३ तवो जोई, जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं, कम्मेहा संजमजोगसन्ती, होमं हुणामि इसिणं पसत्थं । -उत्तराण्ययन सूत्र १२।४४ १२. एसा सा भगवती अहिंसा । -प्रश्न व्याकरण १३. जा सा भीयाण विव सरणं, पक्खोरा पिव गमणं, तिसियाणं पिव सलिलं, खुहियाणं पिव असणं, समुद्दमज्झे व पोतवहणं, चउप्पयालं व बासमपयं, दुहट्ठियारणं च ओसहिबलं, अडवीमज्झे विसत्थगमण ....तसथावरसव्वभूयखेमकरी एसा भगवती अहिंसा। -प्रश्न व्याकरण, संवरद्वार १४. दशवकालिक १११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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