Book Title: Dharm aur Darshan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 236
________________ महावीर के सिद्धान्त २२१ चलो। प्राण, भूत, जीव सत्त्व की हिंसा न करो, उन पर शासन मत करो, उनको पीड़ित मत करो, उन पर प्रहार मत करो। ज्ञानियों के ज्ञान का सार यही है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, अतः निर्गन्थ प्राणिवध का वर्जन करते हैं। सभी प्राणियों को अपने प्राण प्रिय हैं, सुख अनुकूल है और दुःख प्रतिकूल है। जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सब जीवों को भी दुःख प्रिय नहीं है। यह समझकर जो न स्वयं हिंसा करता है और न दूसरों से हिंसा करवाता है वही श्रमण है। इस प्रकार हिंसा का निषेध कर उसे नरक ले जाने का प्रमुख कारण बताकर भगवान् ने मानव को अहिंसा के राजमार्ग पर बढ़ने . की प्रेरणा दी। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा-मनसा, वाचा, कर्मणा जो स्वयं जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है, या जो जीव ३. सव्वे पाणा, सब्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता न हन्तव्वा । न मज्जावेयव्वा, न परिघेतन्या, न परियायेव्वा, न उद्दवेयन्वा ।। -आचारांग १।४।१ ४. एवं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसई किंचण । -सूत्रकृतांग श्रु० १, अ० ११ गा० १० ५. सव्वे जीवा वि इच्छन्ति, जोविउ न मरिज्जि, तम्हा पाणिवहं घोरं, णिग्गन्था वज्जयंति णं । -वशवकालिक, ६१० ६. सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुहपडिकूला अप्पियवहा पिय जीविणो जीविउकामा। सब्वेसि जीवियं पियं ।। -प्राचारांग ११२।३ ७. जह मम न पियं दुखं, जाणिय एमेव सव्व जीवाणं न हणइ न हणावेइ अ, सममणइ तेण सो समणो । -अनुयोग द्वार ८. महारंभयाए महापरिग्गहियाए, पंचिदिय वहेणं, कुणिमाहारेणं । -भगवती शतक ३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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