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धर्म और दर्शन
कर्म की चौंतीस१६५ मानी हैं। भेदों की यह विविध संख्याएं संक्षेप विस्तार की दृष्टि से ही हैं । इनमें कोई तात्त्विक भेद नहीं है । ___ नाम कर्म की अल्पतम स्थिति आठ मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति, बीस कोटाकोटी सागरोपम की है ।१६६ गोत्रकर्म :
जिस कर्म के उदय से जीव में पूज्यता, अपूज्यता का भाव समुत्पन्न हो वह गोत्र कर्म है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो जिस कर्म के प्रभाव से जीव उच्चावच कहलाता है वह गोत्रकर्म है ।१६७
आजार्य उमास्वाति के शब्दों में उच्चगोत्रकर्म देश, जाति, कुल, स्थान, मान, सत्कार, ऐश्वर्यं प्रभृतिविषयक उत्कर्ष का कारण है, और इससे विपरीत नीचगोत्र कर्म चाण्डाल, नट, व्याध, पारिधि, मत्स्यबन्धक, दास आदि भावों का निवर्तक है ।१६८
इस कर्म के मुख्य दो भेद हैं (१) उच्च गोत्र कर्म-जिस कर्म के उदयसे प्राणी लोकप्रतिष्ठित कुल अादि में जन्म ग्रहण करता है ।
१६५ मोहछवीसा एसा, एसा पुण होई नाम चउतीसा ।
-नवतत्त्वसाहित्य संग्रह : नवतत्त्व प्रकरण ८ भाष्य ४६ १६६. उदहीसरिसनामाणं, बीसई कोडिकोडीओ। नामगोत्ताणं उक्कोसा, अट्ठमुहुत्ता जहनिया ॥
-उत्तरा०३३१२३ (ख) नामगोत्रयोविंशतिः । नामगोत्रयोरष्टौ ॥
-तत्त्वार्थ सूत्र प्र०८ । १७-२० १६७. यद्वा कर्मणोऽपादानविवक्षा गूयते-शब्द्यते उच्चावचैः शब्दैरात्मा यस्मात् कर्मणः उदयात् गोत्रं ।
-प्रज्ञापना २३।१।२८८ टीका १६८. उच्चर्गोत्रं देशजातिकुलस्थानमानसत्कारैश्वर्याद्य त्कर्षनिवर्तकम् । विपरीतं नीचर्गोत्रं चण्डालमुष्टिक व्याधमत्स्यबंधदास्यादिनिर्वर्तकम् ।।
तत्त्वार्थ सूत्र ८।१३ भाष्य
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