Book Title: Dharm aur Darshan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 193
________________ १७८ धर्म और दर्शन की आवश्यकता हो उस का उसी प्रकार उचित सत्कार करना । श्रमणों को शुद्ध आहार आदि से सहारा पहँचाना।' अथवा 'द्रव्य' और भाव से अपना स्वयं का तथा पर का उपकार करना। संयमी की आपत्तियों को दूर कर संयम में अपना अनुराग करना। ५. आसेवणं जहाथामं, वेयावच्चं तमाहियं । -उत्तराध्ययन अ० ३०।३३ ६. (क) व्यावृत्तस्य भावः कर्म वा वैयावृत्यं भक्तादिभिरुपष्टम्भः । -स्थानाङ्ग ३।३।१८८ टी० ५० १४५ (ख) व्यावृत्तभावो वैयावृत्यं धर्म साधनार्थ अन्नादि-दानमित्यर्थः । -स्थानाङ्ग ५॥३॥५११ टो० प० ३४६ (ग) 'वेआवच्चे' त्ति वैयावृत्त्यं भक्तपानादिभिरुपष्टम्भः । -प्रोपपातिक टी० पृ० ८१ (घ) भगवती २५७ पृ० २८० (ङ) व्यावृत्तभावो वैयावृत्यम् उचित आहारादिसम्पादनम् । - उत्तराध्ययन ३०॥३३ । वृहवृत्ति ५० ६०८ (च) वैयावच्चं वावडभावो, तह धम्मसाहणनिमित्तं । अन्नाइयाण विहिणा, सम्पायणमेस भावत्थो ।। -उत्तराध्ययन ३०॥३३ को नेमिचन्द्र टीका (छ) व्यावृत्तभावो वैयावृत्यं । ' -आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति प० ११६ (ज) व्यावृत्तस्य भावो वैयावृत्त्यं, साधूनां, मुमुक्षूणां प्रासुकाहारो पधिशय्यास्तथा भेषजविश्रामणादिषु पूर्वत्र च व्यावृत्तस्य मनोवाक्कायः शुद्धः परिणामो वैयावृत्त्यमुच्यते । -तत्त्वार्थभाष्य, सिद्धसेन टीका ७. दव्वेण भावेण वा, जं अप्पणो परस्स वा, उवकारकरणं तं सव्वं वेयावच्चं ॥ __-निशोथ चूणि ४।३७५ ८. व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् । वैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योपि संयमिनाम् । -रत्नकरण्ड श्रावकाचार ११२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258