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धर्म और दर्शन
प्राचीन जैन आगमों में सप्तभंगी बीज रूप में उपलब्ध होती है ।२६ प्राचार्य कुन्दकुन्द ने कुछ ही भंगों का उल्लेख किया है ।२७ किन्तु इनके पश्चाद्वर्ती प्राचार्य समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक, विद्यानन्द, हेमचन्द्र, वादिदेव आदि ने उसका स्पष्ट और विस्तृत विवेचन किया है। इस प्रतिपादन क्रम को कुछ विद्वानों ने स्याद्वाद या सप्तभंगो का विकासक्रम समझ लिया है किन्तु तथ्य यह है कि जैन तत्त्वज्ञान सर्वज्ञमूलक है। सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थङ्करों के ज्ञान में जो तत्त्व प्रतिभासित होता है, उसी को उनके प्रधान शिष्य शब्दबद्ध करते हैं और फिर उनके शिष्य प्रशिष्य उसके एक-एक अंग का प्राधार लेकर युग की स्थिति के अनुसार विभिन्न ग्रन्थों की रचना करते हैं । इा . तत्त्वविवेचन का क्रम आगे बढ़ता है। इस विवे व का विकासक्रम समझ लेना युक्तिसंगत नहीं है। ____इस युग में प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव हुए हैं। उन्होंने जो उपदेश किया वही उनके पश्चात् होने वाले तेईस तीर्थङ्करों ने किया। वही उपदेश कालक्रम से उनके अनुयायी विभिन्न प्राचार्यों द्वारा जैन साहित्य में लिपिबद्ध किया गया है । किसी भी विषय का संक्षिप्त या विस्तृत विवेचन उसके लेखक की संक्षेपरुचि अथवा विस्तार रूचि पर निर्भर करता है । इसके अतिरिक्त युग की विचारधारा भी उसे प्रभावित करती है । खासतौर से दार्शनिक साहित्य में ऐसा भी होता है कि कोई लेखक जब किसी विषय के ग्रन्थ की रचना करता है तो अपने समय तक के विरोधी विचारों का उसमें उल्लेख करता है
२६. जीवा रणं भंते ! किं सासया, असासया ?
गोयमा ! जीवा सिय सासया, सिय असासया। दव्वट्ठयाए सासया, भावट्ठयाए असासया।
-भगवती, ७।२६७७३ २७. सिय अस्थि णस्थि उहयं
-पंचास्तिकाय, प्रवचनसार २८. अत्थं भासइ अरहा, सुत्तगुथति गणहरा निउरणं ।
-भद्रबाहु।
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